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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१४२ आत्मा रूपी चन्द्रमा पर कर्म रूपी बादल छाये हुए हैं, फिर भो । उन्हें हटाया जा सकता है। समता ने विवेक को कहा कि चेतन को तुम जैसे व्यक्ति समझायें तो ही वे समझ सकते हैं। मेरे स्वामी मेरी शिक्षा को ठुकरा कर मेरे घर का परित्याग करके अविरति के घर पर भटकते हैं। इससे उनका कोई हित न होकर हानि ही है। अर्थ –दूसरों के घर भटकने से भला क्या स्वाद मिलता है ? क्या आनन्द आता है ? उससे तो केवल तन, धन और यौवन की क्षति ही होतो है । दिन प्रतिदिन जगत् में अपयश बढ़ता है और मन अपनी मर्यादा नहीं मानता । वह निरंकुश हो जाता है, लाज.शर्म छोड़ देता है ।।३।। विवेचन-जो पुरुष अपनी पत्नी की हित-शिक्षा का त्याग करके श्वानवत् निर्लज्ज होकर पर-घर भटकते हैं और पर-नारियों के फन्दे में फँसते हैं, वे किसी प्रकार का सुख प्राप्त नहीं करते। समता विवेक को कहती है कि आत्मस्वामी परनारी अर्थात् अविरति के घर में प्रवेश करता है जिससे वह अपने प्रदेशों को मलिन करता है और ज्ञान आदि ऋद्धि की हानि करता है । प्रात्मा के गुणों की पुष्टि रूप यौवन भी अविरति नारी के घर में जाने से नष्ट हो जाता है । अतः हे विवेक ! मेरे चेतन स्वामी अविरति नारी के घर में जाते हैं, यह सर्वथा अनुचित है। इस प्रकार समता ने विवेक को अनेक प्रकार से पर-घर में पर-नारी के साथ गमन करने की हानियाँ बताईं। अर्थ - अपने कुल की मर्यादा का उल्लंघन करके मन के चक्कर में चढ़कर उलटे तथा ऊबड़-खाबड़ मार्ग में चेतन जा पड़ा है, वह उन्मार्ग पर चढ़ गया है। यदि एक अन्धा दूसरे अन्धे का ही सहारा लेकर चले तो उन्हें संसार में मार्ग कौन बता सकता है ? नेत्रहीन व्यक्ति यदि नेत्र वाले व्यक्ति का सहारा ले तो ही वह मार्ग पार कर सकता है ।।४।। विवेचन - समता विवेक से कहती है कि जो पुरुष कुलवट छोड़कर उन्मार्ग पर गमन करते हैं वे दुःखी हुए बिना नहीं रहते। अपने शुद्ध धर्म के अनुसार चलना, अपनी पवित्रता को कायम रखना और अपनी दशा उत्तम बनी रहे उस प्रकार अपनी पान पर चलना - इसे कुलवट कहते हैं । समता ने विवेक को कहा कि मेरे चेतन स्वामी अपने कुलवट के मूलधर्म का त्याग करके पर-भाव रूप अकुलवट मार्ग पर रमण करें और अविरति नारी के घर पर पड़े रहें तो उन पर अनेक दुःख आ पड़ें और उन्हें चौरासी लाख जीव-योनि में परिभ्रमण करना पड़े तो क्या आश्चर्य ।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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