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________________ श्री आनन्दघन पदावली-१३३ सकतीं। अतः वह बाजी कच्ची रहती है। उसी प्रकार आत्मा के साझेदार विवेक के शुभ अध्यवसाय रूप 'पौ' नहीं पाती तब तक वह चतुर्गति रूप चौपड़ जीत नहीं सकती। उसका खेल कच्चा हो रहता है अर्थात् जब तक आत्मा अशुभ प्रध्यवसायों को त्याग कर शुभ अध्यवसायी नहीं होती, तब तक वह अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर नहीं हो सकती। अानन्द की समूह प्रात्मा शुभ अध्यवसाय रूप अथवा सम्यक्त्व रूप पौ को प्रकट करे तो गाजी (धर्म युद्ध में विजयी) बनकर बाजी जीत लेती है। वह राग-द्वेष-मोह आदि शत्रुओं पर विजयी होकर गाजी बन जाती है ।। ५॥ . विवेचन-जब तक भाव-विवेक नहीं पाये तब तक बाजी कच्ची जानें। चौपड़ खेलते समयं जब 'पौ' आती है तब बाजी जीती जाती है। पहले बारह दाव आयें और एक पासे में एक आये तो 'पौ' कहलाती है। चौपड़ की तरह चौरासी लाख जोवयोनि में परिभ्रमण करते-करते कभी मनुष्य भव प्राप्त हो जाता है और उसमें दुर्लभ सम्यक्त्वरत्न रूप भाव-विवेक की दृष्टि रूप पौ पा जाती है तब चौरासी लाख जीवयोनिमय संसार चौ गति रूप चौपड़ का पार आता है और आत्मा सरलता से मोक्ष रूप घर में प्रवेश करके त्रिभुवन-विजयी बनकर अनन्त सुख की भोक्ता बनती है। योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी कहते हैं कि हे भगवन् ! सम्यक्त्व विवेक दृष्टिरूप पौ बतायो ताकि चौगतिरूप संसारचौपड़ को जीत कर गाजी बन सकें अर्थात् अनन्त आनन्द प्राप्त करें। (४६ ) (राग-वमन्त, धमाल) सलूने साहिब प्रावेंगे, मेरे वीर विवेक कहो न साँच । मोसू सांच कहो मेरी सु, सुख पायो कै नांहि । कहानी कहा कहूँ उहां की, डोले चतुरगति मांहि ।। सलूने० ।। १ ।। भली भई इत आवही, पंचम गति की प्रीति । सिद्धि-सिद्धि रस पाक की, देखे अपूरब रीति ।। सलूने० ।। २ ।।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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