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________________ योगिराज श्रीमद् श्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य - ११८ संगति का परित्याग करता है और समता के निकट आता है, तब आनन्दघन मेघ की वृष्टि होती है और सर्वत्र आनन्द ही आनन्द छा जाता है ( ( ४५ ) राग - मारु ) मनसा नटनागर सु जोरी हो, मनसा नटनागर सुं जोरी । सखि हम और सबन से तोरी ॥ नटनागर सु जोरी मनसा० ।। १ । लोक लाज नाहिन काज, कुल मरजादा छोरी । लोक बटाऊ हसो विरानी, आपनो कहत न को री ।। मनसा० ।। २ ।। मात तात सज्जन जात, बात करत सब चाखे रस की क्यु' करि छूटै, सुरिजन सुरिजन पीयूष ज्ञान सिन्धु मथित पाई, प्रेम मोदत प्रानन्दघन प्रभु शशिधर, देखत दृष्टि भोरी | टोरी ।। मनसा० ।। ३ ॥ प्रोरहानों कहा कहावत और पै नाहिन कीनी चोरी | काछ कछ्यो सो नाचत निब है, और चाचरि चरि फोरी ।। मनसा० ।। ४ ।। कटोरी | चकोरी || मनसा० ।। ५ ।। मैंने अपने मन को नटनागर चेतन से अर्थ- सुमति कहती है कि हे सखी श्रद्धा ! चतुर नटनागर ( चेतन) की ओर लगाया है । उस अपने मन को लगाने के पश्चात् मैंने समस्त जड़ पदार्थों से अपना मन हटा लिया है ॥ १ ॥ विवेचन - सुमति कहती है कि जड़ पदार्थों के प्रति राग रख कर मैंने अनेक जीवों का संहार किया । स्वर्ण, चांदी, मोती, हीरा, मकान, वस्त्र एवं पात्र आदि जड़ पदार्थों को प्राप्त करने के लिए मैंने अनेक मनुष्यों की
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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