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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१०८ सुमति की दृष्टि सचमुच अपलक नेत्रों से प्रात्म-प्रभु को घूर-चूर कर देख रही है। जल के वियोग से काँटे में फंसी हई मछली की दृष्टि जिस प्रकार जल की ओर लगी रहती है, उसी प्रकार सुमति कहती है कि मेरी दृष्टि प्रियतम के द्वार की ओर लगी रहती है। प्रियतम की छवि की ओर देखने में मेरे मन में किसी के लज्जा रूपी डण्डे का भय नहीं है और मैंने मर्यादा रूपी चादर (पछेड़ी) उतार कर अलग डाल दी है ।। २ ॥ विवेचन--सुमति कहती है कि मेरा मन लज्जा त्याग कर. आत्मप्रभु को देखने के लिए उत्साह का अनुभव कर रहा है। आत्म-प्रभु पर जिसका शुद्ध प्रेम है वह संसार से भला क्यों डरे ? सुमति का आत्मा पर अत्यन्त शुद्ध प्रेम है जिससे प्रात्मा के साथ अन्तरदृष्टि से उसका त्राटक हो रहा है। त्राटक के दो भेद हैं। बाह्य वस्तु को एक स्थिर दृष्टि से देखने के लिए जो त्राटक किया जाता है वह बाह्य त्राटक कहलाता है और आत्मा के शुद्धस्वरूप को देखने के लिए अन्तरदृष्टि से देखना पड़ता है उसे अन्तर त्राटक कहते हैं। भगवान की प्रतिमा एवं सद्गुरु के चित्र के सामने नेत्र स्थिर करके बाह्य त्राटक की साधना की जाती है। बाह्य त्राटक की सिद्धि होने पर संकल्प बल की सिद्धि होती है। बाह्य त्राटक की अपेक्षा अभ्यन्तर आत्म-स्वरूप का त्राटक अनन्तगुना उत्तम है। बाह्य त्राटक को तो बाल-जीव सिद्ध कर सकते हैं परन्तु अन्तर त्राटक को ज्ञानयोगी ही सिद्ध कर सकते हैं। बाह्यत्राटक को भी सिद्ध करने की आवश्यकता है। बाह्य त्राटक. करके, रूप आदि मोह से दूर रहने का प्रयत्न करना चाहिए। अब किसी की तनिक भी रोक नहीं होने से ये हठोले नेत्र तिल के अग्रभाग जितना भी हटना नहीं चाहतीं। हाथी जब मदोन्मत्त हो जाता है, स्वयं के मते से चलता है; महावत का तनिक भी जोर नहीं चलता। महावत का अंकुश किसी काम नहीं आता। वह निरंकुश हो जाता है ।। ३ ।। विवेचन - मदोन्मत्त बने हाथी पर महावत का भी जोर नहीं चलता, उसी प्रकार मन आत्मा के साथ इतना अधिक लीन हो गया है कि उसे हटाया नहीं जा सकता। ऐसी सुमति के मन की प्रेम दशा है । इस कारण सुमति कहती है कि हे अनुभव ! अब तो आत्मप्रेम के बिना मेरे प्राण यहीं पर निकल जायेंगे। सुमति के मन में अतुलनीय प्रेम है।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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