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________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य-१०२ कभी-कभी मेरी ओर उन्मुख होने के रूप में बिजली चमक जाती है। ऐसे सावन-भादौं में सब नदियाँ तथा सरोवर भर गये हैं, परन्तु मेरा हृदय रूपी सरोवर तो अभी तक सूखा ही है। तात्पर्य यह है कि चेतन की विभाव दशा में अशुभकर्म रूपी नदियाँ, तालाब आदि तो भर गये किन्तु मेरा समभाव रूपी तालाब तो सूखा ही रहा ।। ५ ।। विवेचन-सूमति कहती है कि सावन, भादौं के महीनों में आकाश में मेघों की घटायें छा जाती हैं और रिमझिम वर्षा होती रहती है। बीच-बीच में विद्युत् की चमक भी दष्टिगोचर होती रहती है। मेघवृष्टि के कारण नदियाँ तथा सरोवर परिपूर्ण हो चुके होते हैं, फिर भी उस समय मेरा हृदय रूपी सरोवर शुष्क पड़ा रहता है। मेरे चेतनस्वामी रूपी मेघ की कृपा-वृष्टि के बिना मेरा हृदय-सरोवर शुष्क बना रहे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। बाह्य स्थूल भूमिका के मेघों को देखकर मुझे अपने अन्तर के आत्म-मेघ का स्मरण हो पाता है। यदि आत्म-मेघ की वृष्टि हो जाये तो हृदय-सरोवर छलछला उठे। सुमति ने विशेषत: चेतन स्वामी के विरह में हृदय खोलकर विरह-व्यथा' व्यक्त की है। सुमति को इतनी व्यथित देखकर अनुभव . उसकी विरह व्यथा की बात चेतन स्वामी को अनुकूल भाव से उसकी रुचि के अनुसार अवसर देखकर कहता है और उसे समझाता है। जब अनुभव को आशा बँध गई तब उसने आकर सुमति को कहा, "हे सुमते ! तनिक धैर्य रखो, आनन्दघन प्रभु अब तेरे पास आने ही वाले हैं।" श्रीमद् आनन्दघनजी महाराज कहते हैं कि अनुभव ने. सुमति को इस प्रकार धैर्य बंधाया ।। ६ ।। विवेचन-- यदि सुमति ऊपरी गुणस्थानक पर जाने हेतु कुछ समय के लिए धैर्य रखे तो आनन्दघन रूप परमात्म-स्वामी उसके घर आये बिना नहीं रहेंगे। जिसके हृदय में समता जाग्रत हो और आत्म-प्रभु की प्राप्ति के लिए विरह-दशा के उद्गार प्रकट हों, वही मनुष्य अपने शुद्धस्वरूप को प्राप्त कर सकता है। शुद्ध प्रेम से प्रात्म-प्रभु का ध्यान किये बिना बाह्य दशा का भान नहीं भूला जाता है। यदि जड़ वस्तुओं के. राग का परित्याग करना हो और आत्मा की आनन्द-दशा प्राप्त करनी हो तो आत्मा के प्रति अत्यन्त शुद्ध प्रेम रखना चाहिए। शुद्ध प्रेम में समस्त आत्माओं की एकता प्रतीत होती है। समस्त जीवों पर शुद्ध प्रेम का
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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