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________________ योगिराज श्रीमद् आनन्दघनजी एवं उनका काव्य-१०० गाल हथेली लगाइ के, सुर सिन्धु समेली हो। अँसुवन नीर बहाय के, सींचू कर बेली हो । पिया० ॥ ४ ॥ श्रावण-भादू घन घटा, बिच बीज झबूका हो। सरिता सरवर सब भरे, मेरा घट सर सूका हो ।। पिया० ।। ५ ।। अनुभव बात बनाइके, कहे जैसी भाव हो । समता टुक धीरज धरो, आनन्दघन आवे हो ।। - पिया० ।। ६ ।। अर्थ-समति कहती है कि चेतन स्वामी के बिना मेरे होश-हवास खो गये हैं, मैं सुध-बुध खो बैठी हूँ। रात्रि के समय विरह रूपी भुजंग ने मेरी शय्या को रौद कर उसे अस्त-व्यस्त कर दिया है। चेतन की विभाव दशा ने यह भयंकर स्थिति कर दी है ।।१।। विवेचन-जिसका जिससे प्रेम होता है, उसका उसके बिना मन . नहीं लगता। प्रेमी का विरह अत्यन्त दु:खदायी होता है। प्रेममय सुमति को विरह साँप के समान प्रतीत होता है। जिस प्रकार साँप प्राण-घातक है, उसी प्रकार विरह भी प्रेममय पत्नी को प्रारण-घातक प्रतीत होता है। अन्धकार में जिस प्रकार साँप का विष विशेष होता है, उसी प्रकार रात्रि में विरह रूपी साँप का जोर प्रबल होता है। ___ खाना-पीना सब छट गया। खाना-पीना किसे अच्छा लगे ? मैं अपनी व्यथा की सच्ची बात किसके समक्ष प्रकट करूं ? आजकल में घर आने की बात थी, परन्तु मन में वह आशा लुप्त हो गई। अर्थात् चेतन स्वामी आजकल में निजस्वभावरूपी अपने घर में आने वाले थे किन्तु उनके निज स्वभाव में न आने के कारण सब आशा विलुप्त हो गई ॥२॥ विवेचनखाना-पीना तो चेतन स्वामी के विरह में दूर रहा, किन्तु उसकी कथा भी प्रीतम के विरह के कारण टल गई। प्रीतम के विरह में देह का कोई मूल्य नहीं है तो फिर भोजन की, पानी की कथा करने की बात ही कहाँ रही? उच्च कोटि के निष्काम प्रेम की धुन में
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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