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________________ योगिराज श्रीमद् प्रानन्दघनजी एवं उनका काव्य ६० जाता है। प्रात्मा का मिलाप हो सम्यक्त्व को प्राप्ति है और फिर चारित्र का विरह होता है ।। ४ ।। सुमति कह रही है कि फाल्गुन-शुक्ला पूर्णिमा की उस एक रात्रि में चाचर गाने वाले, गेर नाचने वाले होली जलाते हैं, परन्तु मेरे अन्तर में तो प्रतिदिन होली जलती रहती है और देह की राख उड़ती रहती है । मेरे मन में तो नित्य पति की वियोग रूपी होली जलती रहती है जो देह एवं रक्त आदि को जलाकर भस्म करती रहती है। इससे मेरी अत्यन्त दुर्दशा हो गई है ।। ५ ।। श्री ज्ञानसारजी महाराज ने अपनी टीका में लिखा है कि सुमति कहती है कि हे चाचर गाने वालो! तुम्हारे तो होली जलाने का दिखावा मात्र है, परन्तु पति के वियोग में मेरे तो रात-दिन होली जलती रहती है। अतः शुद्ध स्वरूप चितवन रूपी मेरी देह जलकर राख हो गई . है। वह राख भी उड़ गई, रही नहीं -अर्थात् -सुमति की कुमति हो गई। टीकाकार ने 'राख भी नहीं रही' यह अर्थ करके रूपक को सांगोपांग बना दिया है। - सुमति कह रही है कि हे आनन्दघन प्रभो! आप ऐसे निष्ठुर न बनें। आप मेरे महल में बैठ कर अपनी वाणी का रस तो दो अर्थात् मुझसे वार्तालाप तो करो। मैं आपकी बलिहारी जाती हूँ, मैं आपके समक्ष अपना समर्पण करती हूँ। आप निष्ठुर न बनें, मेरा परित्याग न करें॥६॥ श्री ज्ञानसारजी महाराज ने छठे छन्द का अर्थ करते हुए कहा है कि सुमति कह रही है - हे श्रद्धे ! मुझ मति के महल में जब शुद्धोपयोगी आत्माराम पाकर बिराजेंगे, तब मैं मति से सुमति हो जाऊंगी। जब तक मैं मति थी, मेरा चौगति रूप महल था और जब मैं मति से सुमति हो गई, तब शुद्ध स्याद्वाद मतानुयायी चरित्र द्वार प्रवेश मुक्ति महल में बिराजमान एक अरिहन्त, दूसरे सिद्ध; उनमें यहाँ केवल अरिहन्त का कथन है। उन अरिहन्त की वाणी रस के रेजा अर्थात् तरंग ऐसे आनन्द के समूह प्रभु की मैं बलैयाँ लेती हूँ।
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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