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________________ श्री आनन्दघन पदावली-७३ के नौ भेद टलने से नौ गुरण उत्पन्न होते हैं। वेदनीय के दो भेद टलने से प्रात्मा अव्याबाध सुख प्राप्त करती है। मोहनीय के भेद दर्शनमोहनीय का नाश होने से क्षायिक सम्यक्त्व गुण उत्पन्न होता है और चारित्रमोहनीय के नाश से 'क्षायिक चारित्र' प्रकट होता है। प्रायुष्यकर्म की चार प्रकृतियों के नाश से 'सादि अनन्त स्थिति' प्राप्त होती है।॥ २॥ ___ नामकर्म के शुभ, अशुभ दो भेद हैं और गोत्रकर्म के उच्च गोत्र एवं नीच गोत्र दो भेद हैं। दान, भोग, उपभोग, लाभ तथा वीर्य में विघ्न डालने वाले पाँचों अन्तराय कर्मों को स्वयं से दूर करके, उन्हें हटा कर पंचमगति अर्थात् मोक्ष के स्वामी होते हैं। नामकर्म के नाश से मरूपी गुण उत्पन्न होता है। गोत्रकर्म के नाश से अगुरुलघु गुण उत्पन्न होता है ।। ३ ॥ . जगत् के स्वामी सिद्ध भगवान में एक ही समय में एक साथ इकत्तीस गुण होते हैं। सिद्ध भगवान में अन्य भी अनन्त अविरोधी गुण हैं जिन्हें परमागम से ज्ञात करना चाहिए ॥ ४ ॥ .: श्रीमद् प्रानन्दघनजी कहते हैं कि हे मेरे प्रात्मन् ! हे सुन्दर एवं सूखद वस्तुमों के शिरोमणि ! सून । तू भी एकाग्र-चित्त से तन्मय होकर सिद्ध परमात्मा के गुणगान कर जिससे परमानन्द प्राप्त हो अर्थात् सिद्ध भगवान में तल्लीन होकर भजन कर ताकि परमानन्द-दायक परमपद की प्राप्ति हो ॥५॥ . (२७) (राग-टोड़ी) तेरी हूँ तेरी हूँ एती कहूँ री। इन वातन कू दरेग तू जाने, तो करवत कासी जाय गहूँ री ।। तेरी० ॥१॥ वेद पुराणा कतेब कुरान में, आगम-निगम कछु न लहूँ री।। चाचरी फोरी सिखाइ सबनिकी, मैं तेरे रस रंग रहूँ री । तेरी० ॥२॥
SR No.002230
Book TitleYogiraj Anandghanji evam Unka Kavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNainmal V Surana
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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