SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४ प्रमेयकमलमार्तण्ड परिशीलन का निर्मल होना । इस कथन से यह सिद्ध होता है कि ज्ञान में प्रामाण्य और अप्रामाण्य की उत्पत्ति अपने अपने विशिष्ट कारणों से ही होती है । 1 अब प्रामाण्य की ज्ञप्ति के विषय में विचार करना है । ज्ञप्ति का अर्थ है जानना । किसी अपरिचित देश में जाते हुए किसी स्थान में दूर से ही हमें जो जलज्ञान होता है उसके प्रामाण्य को हम कैसे जानते हैं ? इसका उत्तर यह है कि अनभ्यासदशा में जलज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय स्वतः नहीं होता है । क्योंकि वहाँ संशय तथा विपर्यय बने रहते हैं । यह जलज्ञान सत्य है या नहीं ऐसा संशय वहाँ होता है । अथवा मरीचिका में जलज्ञान हो जाने से विपर्यय भी वहाँ पाया जाता है । अतः अनभ्यासदशा में जो जलज्ञान हुआ है उसके प्रामाण्य का निश्चय परतः होता है । वह इस प्रकार से होता है - जलप्रदेश की ओर से आने वाली शीतल वायु के स्पर्श से, कमलों की सुगन्ध से, मेढकों की आवाज से तथा घट में पानी भरकर लाने वाले व्यक्तियों को देखने आदि परनिमित्तों से अनभ्यासदशा में जलज्ञान के प्रामाण्य का निश्चय होता है । अनभ्यासदशा में अप्रामाण्य का ज्ञान भी स्वतः नहीं होता है । इसके विपरीत अभ्यासदशा में प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों का ज्ञान स्वतः ही हो जाता है । वहाँ प्रामाण्य और अप्रामाण्य को जानने के लिए दूसरे साधनों की आवश्यकता नहीं पड़ती है । अब प्रामाण्य के प्रवृत्तिरूप स्वकार्य के विषय में विचार करना है । प्रामाण्य का स्वकार्य है—अपने विषय में प्रवृत्ति कराना । प्रवृत्तिरूप स्वकार्य में भी प्रामाण्य स्वतः नहीं होता है । जलज्ञान होने पर जल की ओर गमन करना, पानी पीना आदि जलज्ञान का प्रवृत्तिरूप स्वकार्य है । यह कार्य भी स्वग्रहणसापेक्ष होता है । अर्थात् यह जलज्ञान प्रमाण है ऐसा ज्ञान होने पर ही जलज्ञान स्वकार्य में प्रवृत्ति कराता है । अप्रामाण्य के विषय में भी यही बात है । वहाँ भी शुक्तिका में जो रजतज्ञान हुआ है वह असत्य है ऐसा ज्ञान होने पर ही रजतज्ञान उस पदार्थ से निवृत्तिरूप स्वकार्य को कराता है । । मीमांसक का एक मत यह भी है कि पहले सब ज्ञान प्रमाणरूप ही उत्पन्न होते हैं । बाद में यदि वहाँ ज्ञान के कारण में दोष का ज्ञान और बाधक प्रत्यय का उदय हो जावे तो वह ज्ञान अप्रमाण हो जाता है । तात्पर्य यह है कि पहले उत्पन्न हुए ज्ञान में यदि कोई बाधक प्रत्यय उपस्थित हो
SR No.002226
Book TitlePrameykamalmarttand Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherPrachya Shraman Bharati
Publication Year1998
Total Pages340
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy