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________________ . (९०) ॥ श्रीनवतत्त्वविस्तरार्थः ॥ पुद्गलोनो क्षय थाय, परन्तु तेवी रीत अल्पकाळ चालु रथा बाद ते रीति पुनः पलटाइने प्रतिसमय प्रथम करतां वधु ने वधु पुद्गलोनो क्षय थवा मांडे तो अन्तर्मुहर्तमां पण तेज पुद्गलोनो सर्व क्षय थइजाय, जेथी १०० वर्ष संपूर्ण न थया छतां पण (१.०० वर्षे पूर्ण थनार ) सर्व पुद्गलनो क्षय थइ गयो. तथा १ मण पाणीनी भरेली अपक्व ( भट्ठीमां बराबर नहिं पाकेली ) माटीनी गोळी थोडीवार सुधी तो बिंदु बिंदु जेटली टपके, परन्तु थोडीवार पछी ते गोकीमां फाट पडबाथी तेमां भरेलु ? मण पाणी घणा प्रमाणमां जवा मांडे जेथी अल्पकाळमांज सर्व जळनो क्षय थाय तेम अपक्व ( शिथिल ) आयुष्य माटे पण जाणवू. इत्यादि अनेक दृष्टांतो स्वबुद्धिए विचारवां. ॥ सोपक्रमी अने निरुपक्रमी आयुष्य.॥ शस्त्रादि बाह्य निमित्तथी जे आयुष्यनो क्षय थाय ते "सोपक्रम आयुष्य' कहेवाय. अहिं उपक्रमनो अर्थ "बाह्य निमित्त" छे. अथवा आयुष्यना अन्तसमये जेने बाह्य निमित्त विद्यमान होय तेवू आयुष्य पण सोपक्रम आयुष्य कहेवाय.-तथा बाह्य निमित्तवि...१ आ अर्थ अपवर्तनीय आयुष्यवाळा जीवने माटे छे. . २ आ अर्थ अनपवर्तनीय आयुष्यवाळा जीवना संबंधमां छे. कारणके ए जीवना आयुष्यना अन्त समये उपक्रम विद्यमान होय छे परन्तु ते उपक्रम आयुष्यनो क्षय करवामां हेतुभूत नथी कारणके अनपवर्तनीय आयुष्य उपक्रमवडे क्षय न थाय इति तत्त्वार्थवृत्यभिप्रायः. पुनः घणा ग्रंथकार अने सिद्धान्तकर्ता महात्माओ तो सोपक्रम अने निरुपक्रम ए वे भेदमात्रथी ज आयुष्यनुं वर्णन करे छे. परन्तु अपवर्तनीय अने अनपवर्तनीय भेदनी मुख्यता जणावता नथी. परन्तु श्रीतत्त्वार्थवृत्तिमा अभिप्राये बन्ने भेदोनो परस्पर संबंध राखवाथी वधु स्पष्ट बोध थइ शके छे.
SR No.002215
Book TitleNavtattva Vistararth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Prakashak Sabha
PublisherJain Granth Prakashak Sabha
Publication Year1923
Total Pages426
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, B000, & B010
File Size7 MB
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