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________________ ( ३२० ) ) विख्यात हैं । उनके नाम ये हैंभूमि) (२) वस्तु ( निवास योग्य (चांदी) (४) सुवर्ण (सोना) ( ५ ) ढले हुए सिक्के अथवा घt गुड़, शक्कर (६) धान्य (गेहूँ चावल तिल आदि दो पांव हों, जैसे मनुष्य और पक्षी ) चार पांव हों जैसे हाथी घोड़े गाय बैल भैंस बकरी आदि ) और (8) कुप्य ( वस्त्र पात्र औषध वासन आदि) । इन नव भेदों में सचित्त और अचित्त अथवा जड़ और चेतन अथवा स्थावर और जंगम वे सभी पदार्थ प्रा जाते हैं जिनसे मनुष्य को ममत्व होता है अथवा मनुष्य जिनकी इच्छा करता है । क्षेत्र से मतलब उत्पादक खुली भूमि से है । इसलिए क्षेत्र में खेत बाग पहाड़ खदान चरागाह जंगल आदि समस्त भूमि आ जाती है । यह व्रत स्वीकार करने वाले को क्षेत्र के विषय में मर्यादा करनी चाहिए कि मैं इतनी भूमि - खेत बाग पहाड़ या गोचरभूमि आदि से अधिक अपने अधिकार में भी नहीं रखूंगा, न इससे अधिक की इच्छा करूंगा । ( १ ) क्षेत्र (खेत आदि स्थान ) (३) हिरण्य धन ( सोने चांदी के आदि मूल्यवान पदार्थ ) (७) द्विपद ( जिनके ( 5 ) चौपद जिनके दूसरा भेद वास्तु है । वास्तु का अर्थ है, गृह । जमीन के भीतर या ऊपर या भीतर - ऊपर बने हुए घरों के विषय में भी परिमाण करना कि मैं इतने गृह जो इतने से अधिक लम्बे चौड़े और ऊंचे न होंगे तथा जिनका मूल्य इतने से अधिक न होगा - से अधिक गृह अपने अधिकार में न रखूंगा और न अधिक की इच्छा ही करूंगा । धन से मतलब सिक्का और अन्य मूल्यवान् वस्तुएं मरिण माणिक गुड़ घी शक्कर आदि हैं । इनके विषय में भी परिमारण करना कि मैं ये सब या इनमें अमुक अमुक वस्तु इतने परिमाण और
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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