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________________ ( २८०) मुद्रा के अधीन नहीं था, तब कृषक लोग भूमिकर में उसो वस्तु का कोई भाग देते थे, जो उन्हें कृषि द्वारा प्राप्त होतो थी । ऐसा कर (महसूल) चक्रवर्ती तो उपज का बीसवां भाग लेते थे, वासुदेव दशमांश और साधारण राजा षष्ठांश लेते थे । इससे अधिक कर नहीं लिया जाता था । लेकिन आजकल कृषि से तो अन्न या दूसरे पदार्थ उत्पन्न होते हैं, और भूमिकर मुद्रा के रूप में लिया जाता है। इससे कृषकों को अन्नादि सस्ते भाव में भी बेच देना पड़ता है । इसके सिवाय कृषि में कुछ उत्पन्न हो या न हो, अथवा कम उत्पन्न हो, फिर भी भूमिकर (लगान) तो प्रायः बराबर ही देना होता है । इस प्रकार जव से सिक्के का निर्माण और प्रच. लन हुआ है, जनता अधिक दुःखी हुई है । सिक्के के कारण व्यापारी भी थोडी ही देर में धनवान बन जाता है और थोड़ी ही देर में दिवाला निकाल देता है। यह सिक्के का ही प्रताप है । इस प्रकार सिक्के के निर्माण और उसकी वृद्धि ने आपत्तियों की भी वृद्धि की है। इसलिए किसी एक बादशाह ने अपने राज्य में भारी-भारी (वजनदार) सिक्का चलाया था । उसका कहना था कि सिक्का जितना भी कम हो उतना ही अच्छा है । दुःखों का मूल-परिग्रह सांसारिक पदार्थों मे आत्मा को कभी भी सुख नहीं मिलता क्योंकि सांसारिक पदार्थों में सुख है ही नहीं । इसलिए उनसे चाहे जितना ममत्व किया जावे- उनका चाहे जितना संग्रह किया जावे – उनसे सदा दुःख ही होता है । संसार के प्राप्त पदार्थ भी दुःख देते हैं और जो प्राप्त नहीं
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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