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________________ ( १६०) गीता में कहा है :यथा संहरते चायं, कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियारणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।। जिस प्रकार कछुआ अपने सब अंगों को सिकोड़ लेता है, उसी प्रकार, विषयों की ओर से इन्द्रियों को सिकोड़ लेने वाला ही स्थिरबुद्धि है। महाभारत में कहा है :सत्ये रतानां सततं, दान्तानामूर्ध्व-रेतसाम् । ब्रह्मचर्य दहेद्राजन् ! सर्व पापान्यपासितम् ॥ 'हे राजन् ! सत्य से प्रेम करने वाले ब्रह्मचारी का ब्रह्मचर्य, समस्त पापों को नष्ट करने वाला है ।' ब्रह्मचर्य की प्रशंसा में विद्वान् लोग कहते हैं : . ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां, वीर्यलाभो भवत्यपि । सुरत्वं मानवो याति, चान्ते याति परां गतिम् ॥१॥ ब्रह्मचर्य पालनीयं, देवानामपि दुर्लभम् । वीर्य सुरक्षिते यान्ति, सर्वलोकार्थसिद्धयः ॥२॥ ब्रह्मचर्य का पालन करने से वीर्य का लाभ होता है, मनुष्य भी देवता के समान दिव्य हो जाता है और ब्रह्मचर्य की साधना पूरी होने पर परमगति भी मिलती है ।।१।। ब्रह्मचर्य, देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, इसलिये इसका
SR No.002213
Book TitleGruhastha Dharm Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year1976
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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