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________________ आत्मा का दर्शन ४५८ खण्ड-४ २७. धम्माउ भट्ठ सिरिओ-ववेयं जिसकी दाढ़ें उखाड़ ली गई हों, उस घोर विषधर जण्णग्गि विज्झायमिवप्पतेयं।। सर्प की साधारण लोग भी अवहेलना करते हैं, वैसे ही हीलंति णं दुविहियं कुसीला धर्म-भ्रष्ट, चारित्र रूपी श्री से रहित, बुझी हुई यज्ञाग्नि दाढद्धियं घोरविसं व नागं॥ की भांति निस्तेज और दुर्विहित साधु की कुशील व्यक्ति भी निंदा करते हैं। २८.इहेव धम्मो अयसो अकित्ती दुन्नामधेन्जं च पिहुज्जणम्मि। चुयस्स धम्माउ अहम्मसेविणो संभिन्नवित्तस्स य हेट्ठओगई॥ धर्म से च्युत, अधर्मसेवी और चरित्र का खंडन करने वाला साधु इसी मनुष्य जीवन में अधर्म का आचरण करता है। उसका अयश और अकीर्ति होती है। साधारण लोगों में भी उसका दुर्नाम होता है तथा उसकी अधोगति होती है। २९.भुंजित्तु भोगाइ पसज्झ चेयसा तहाविहं कटु असंजमं बहुं। गइंच गच्छे अणभिज्झियं दुहं बोही य से नो सुलभा पुणो पुणो॥ संयम से भ्रष्ट साधु आवेगपूर्ण चित्त से भोगों को भोगकर, तथाविध प्रचुर असंयम का आसेवन कर, अनिष्ट एवं दुःखपूर्ण गति में जाता है। बार-बार जन्ममरण करने पर भी उसे बोधि सुलभ नहीं होती। ३०.इमस्स ता नेरइयस्स जंतुणो दुहोवणीयस्स किलेसवत्तिणो। पलिओवमं झिज्जइ सागरोवम किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं? दुःख से युक्त और क्लेशमय जीवन बिताने वाले इन नारकीय जीवों की पल्योपम और सागरोपम आयु भी समाप्त हो जाती है तो फिर यह मेरा मनोदुःख कितने काल का है। ३१.न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सई असासया भोगपिवास जंतुणो। नचे सरीरेण इमेण वेस्सई अविस्सई जीवियपज्जवेण मे॥ यह मेरा दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा। जीवों की भोग पिपासा अशाश्वत है। यदि वह इस शरीर के होते हए न मिटी तो मेरे जीवन की समाप्ति के समय तो वह अवश्य मिट ही जाएगी। ३२.जस्सेवमप्पा उ हवेज्ज निच्छिओ चएज्ज देहं न हु धम्मसासणं। तं तारिसं नो पयलेंति इंदिया उवेंतवाया व सुदंसणं गिरिं॥ जिसकी आत्मा इस प्रकार निश्चित (दृढ़ संकल्पयुक्त) होती है-'देह को त्याग देना चाहिए पर धर्म शासन को नहीं छोड़ना चाहिए'-उस दृढ़प्रतिज्ञ साधु को इन्द्रियां उसी प्रकार विचलित नहीं कर सकतीं, जिस प्रकार वेग पूर्ण गति से आता हुआ महावायु सुदर्शन गिरि को। ३३.इच्चेव संपस्सिय बुद्धिमं नरो आयं उवायं विविहं वियाणिया। कारण वाया अदु माणसेणं तिगत्तिगत्तो जिणवयणमहिदिठज्जासि॥ बुद्धिमान मनुष्य इस प्रकार सम्यक् आलोचना कर तथा विविध प्रकार के लाभ और उनके साधनों को जानकर तीन गुप्तियों-काय से, वाणी से और मन से गुप्त होकर जिनवाणी का आश्रय ले।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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