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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक १ ९ है । अवुच्छिन्नाओ - जो जीव रहित नहीं हुई है । वा - अथवा तरुणियं - तरुण । छिवाडिं- अपक्व फलीजिसकी फलियां पकी हुई नहीं हैं, ऐसी मुद्गादि की फली । अणभिकंतमभज्जियं - जो सजीव या अभग्न- अमर्दित है। ऐसी औषधि को। पेहाए-देखकर यह । अफासुयं- अप्रासुक-सचित्त । अणेसणिज्जन्ति तथा अनेषणीयसदोष है इस प्रकार। मन्नमाणे- मानता हुआ साधु । लाभे सन्ते मिलने पर भी । नो पडिग्गाहिज्जा - उसे ग्रहण न करे । से वह । भिक्खू वा - साधु या साध्वी । जाव - यावत् । पविट्ठे समाणे- गृहस्थ के कुल मे जाने पर । सेवह भिक्षु । जाओ - जो । पुण- फिर । ओसहीओ - औषधि को । जाणिज्जा - जाने कि यह औषधि। अकसिणाओअचित्त है । असांसियाओ - विनष्ट योनि है । विदलकडाओ - इसके दो दल विभाग किए गए हैं। तिरिच्छच्छिन्नाओ - इसका तिर्यक् छेदन हुआ है अर्थात् सूक्ष्म खण्ड किए गए हैं। वुच्छिन्नाओ - यह अचित्तजीव से रहित है। तरुणियं छिवाडिं यह तरुण फली । अभिक्कंतं - जीव रहित तथा । भज्जियं - मर्दित एवं अग्नि द्वारा भूनी हुई है ऐसा। पेहाए - देखकर यह । फासुयं प्रासुक - अचित्त तथा । एसणिज्जंति - एषणीय निर्दोष है इस प्रकार । मन्नमाणे- मानता हुआ साधु । लाभे संते-मिलने पर । पडिग्गाहिज्जा - उसे ग्रहण स्वीकार कर लेवे। मूलार्थ - गृहस्थ के घर में गया हुआ साधु व साध्वी औषधि के विषय में यह जाने कि इन औषधियों में जो सचित्त हैं, अविनष्ट योनि हैं, जिनके दो या दो से अधिक भाग नहीं हुए हैं, जो जीव रहित नहीं हुई हैं ऐसी अपक्व फली आदि को देखकर उसे अप्रासुक एवं अनेषणीय मानता हुआ साधु उसके मिलने पर भी उसे ग्रहण न करे । परन्तु औषधि के निमित्त गृहस्थ के घर में प्रविष्ट हुआ साधु या साध्वी औषधि के संबंध में यह जाने कि यह सर्वथा अचित्त है, विनष्ट योनि वाली है। द्विदल अर्थात् इसके दो भाग हो गए हैं, इसके सूक्ष्म खंड किए गए हैं, यह जीव-जन्तु से रहित है, तथा मर्दित एवं अग्नि द्वारा परिपक्व की गई है, इस प्रकार की प्रासुक - अचित्त एवं एषणीय निर्दोष औषध गृहस्थ के घर से प्राप्त होने पर साधु उसे ग्रहण करले । हिन्दी विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में औषध के सम्बन्ध में विधि - निषेध का वर्णन किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि विधि एवं निषेध दोनों सापेक्ष हैं। विधि से निषेध एवं निषेध से विधि का परिचय मिलता है। जैसे साधु को सचित्त एवं अनेषणीय पदार्थ नहीं लेना, यह निषेध सूत्र है, परन्तु इससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि साधु अचित्त एवं निर्दोष आहार ग्रहण कर सकता है। इस तरह विधि एवं निषेध एक दूसरे के परिचायक हैं ! यह हम देख चुके हैं कि साधु पूर्ण अहिंसक है । अत: वह ऐसा पदार्थ ग्रहण नहीं करता जिससे किसी प्राणी की हिंसा होती हो। इसलिए यह बताया गया है कि गृहस्थ के घर में औषधि आदि के लिए प्रविष्ट हुए साधु को यह जान लेना चाहिए कि वह औषध सचित्त- सजीव तो नहीं है ? जैसे कोई फल या बहेड़ा आदि है, जब तक उस पर शस्त्र का प्रयोग न हुआ हो तब तक वह सचित्त रहता है। उसके दो टुकड़े होने पर वह सचित्त नहीं रहता । परन्तु कुछ ऐसे पदार्थ भी हैं जो दो दल होने के बाद भी सचित्त
SR No.002207
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size13 MB
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