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________________ अध्यात्मसार : 5 मूलम् : अदिस्समाणे कयविक्कयेसु, से ण किणे न किणाकिणंतं न समणुजाणइ, से भिक्खू कालन्ने बालन्ने मायन्ने खेयन्ने खणयन्ने विणयन्ने ससमयपरसमयन्ने भावन्ने परिग्गहं अममायमाणे कालाणुट्ठाई अपडिण्णे। 12/5/89 मूलार्थ : स्वयं क्रय-विक्रय कार्य को नहीं करता हुआ और न उसका उपदेश देता हुआ वह भिक्षु, न तो स्वयं वस्तु खरीदे और न दूसरों से मोल मंगावे तथा मूल्य से खरीदने वाले का अनुमोदन भी न करे। वह भिक्षु काल-समय का, आत्मबल का, आहारादि के प्रमाण का संसार के परिभ्रमण के कष्ट का, अवसर का, विनय का ज्ञाता, स्वमत और परमत के स्वरूप का दाता और श्रोताओं के भाव का परिज्ञाता हो और यथासमय क्रियानुष्ठान करने वाला, परिग्रह का त्यागी एवं दुराग्रह से रहित, अर्थात् दुष्ट प्रतिज्ञा न करने वाला हो। ये आहार विधि किसके लिए है? यहाँ एक विशेषण दिया है 'अणगार'। यह आहार विधि अणगार के लिए है। अणगार किसे कहते हैं? इसका मूलभाव क्या है? जो बाह्य सुरक्षा का त्याग करके धर्म की शरण में आ गया। __ धन-परिवार, पद इत्यादि क्यों चाहिए? इनके प्रति आसक्ति क्यों है? क्योंकि व्यक्ति की मन की यह समझ है कि यह सब मेरी रक्षा करेंगे। एक पत्नी पति को क्यों चाहती है? वस्तुतः पत्नी की यह समझ है कि मेरा पति मेरी सुरक्षा है। उसके सुख और सुरक्षा में पति निमित्त है। इसलिए वह पति को चाहती है। यह ऐसे ही है जैसे इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्ति है, इस कारण उन विषयों की पूर्ति जिन साधनों से होती है, उन साधनों के प्रति भी आसक्ति होती है। हम किसी भी साधन को क्यों चाहते हैं? क्योंकि हमारी अब तक की यह समझ है कि मेरी सुख-सुविधा की पूर्ति इस साधन से हो सकती है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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