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________________ अध्यात्मसार: 2 325 संघ में शक्तिशाली कौन? ___ व्यक्ति यह समझता है कि मेरी जाति का बल, धन बल, मित्र बल यही मेरा बल है। वह यह भूल जाता है कि यह वास्तविक बल नहीं है, वास्तव में तो आत्मबल ही मेरा बल है, लेकिन अपनी भ्रान्ति के कारण वह उन सारे बलों को बढ़ाने के लिए अनेक पापकर्मों का उपार्जन करता है, अनंत अशुभ कर्मवर्गणाओं को एकत्रित करता है, जिससे कि उसका वास्तविक आत्मबल क्षीण होता है। जाति, मित्र, शरीर, धन इन सभी बलों को बढ़ा कर भी वह चिंतित और भयभीत रहता है कि कहीं मेरा यह बढ़ाया हुआ बल क्षीण न हो जाए। उसका यह डर इस बात का सूचक है कि जिस बल को उसने बढ़ाया है, वह वास्तविक बल नहीं है। ____वास्तविक बल तो अपने साथ अभय लेकर आता है। आत्मबल जितना बढ़ता है, उतना ही अभय का विकास बढ़ता है। बाकी सारे बल भय बढ़ाते हैं। जितना व्यक्ति भयभीत होगा, उतना ही वह सुरक्षा चाहता है। बाहर का बल जितना ही बढ़ता है और उस भय के पीछे सुरक्षा की आवश्यकता भी उसे महसूस होती है। इस प्रकार जितना वह बाह्य रूप से बलवान है, उतना ही भयभीत और उतनी ही सुरक्षा की आवश्यकता। भगवान अभय में जीवन को जिए, उन्होंने आत्मबल की साधना की। वे चाहते तो किसी का सहारा ले सकते थे, लेकिन उन्होंने किसी का सहारा, किसी की सुरक्षा नहीं ली, क्योंकि वे जान गए थे, बाह्य बल बढ़ाने से आत्मबल नहीं बढ़ता और सहारा लेने पर आत्मबल का विकास नहीं होता तथा बिना आत्मबल के ज्ञान का जांगरण नहीं होता। इसलिए वे सारे सहारे छोड़कर आत्मबल आश्रित आत्मनिर्भर बन गए। जैसे कहा जाता है कि श्रमण स्वावलम्बी होते हैं, अर्थात् वह किसी दूसरे के बल पर, व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति के बल पर नहीं खड़ा है, अपितु स्वयं अपने बल पर खड़ा हुआ है। जो दूसरे के बल पर खड़ा हुआ है, वह सदैव दूसरों को खुश रखने के लिए प्रयत्नरत रहता है। जिस हेतु पाप कर्म या माया का सेवन भी वह कर लेता है। आत्मबल बढ़ाना हो तो सत्य, अहिंसा और साधना का मार्ग। भगवान का मार्ग वीरों का मार्ग है। वीर वह जो अपने आत्मबल पर आश्रित रहता है। यह भ्रान्ति अधिकांश लोगों को है कि बाह्यबल बढ़ने से ही मेरा बल बढ़ेगा। इसलिए अनेक बार साधुजन भी ऐसा कहते हैं कि मेरा श्रावक बल बढ़ेगा, तो मेरा
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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