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________________ का फल- कर्मक्षय आदि, ग्रहण और आसेवन रूप शिक्षा, अथवा शिष्य को, सत्य और व्यवहार भाषा ग्रहण करने योग्य है और मिश्र तथा असत्य भाषा त्याज्य हैं। चरणव्रतादि, करण-पिण्डविशुद्धि आदि, यात्रा-संयम यात्रा के निर्वाह के लिए परिमित आहार ग्रहण करना और नाना प्रकार के अभिग्रह धारण करके विचरण करना इत्यादि विषयों का वर्णन किया गया है, वह आचार संक्षेप में पांच प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, जैसे कि-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप-आचार और वीर्य-आचार। आचार-श्रुत में सूत्र और अर्थ से परिमित वाचनाएं हैं, संख्यात-अनुयोगद्वार, संख्यात-वेढा-छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तिएं, और संख्यात प्रतिपत्तिएं वर्णित वह आचार अंग अर्थ से प्रथम अंग है। उसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं, पच्चीस अध्ययन हैं। ८५ उद्देशनकाल हैं, ८५ समुद्देशनकाल हैं। पदपरिमाण में १८ हजार पदाग्र हैं। संख्यात अक्षर हैं। अनन्त गम अर्थात् अनन्त अर्थागम हैं। अनन्त पर्यायें हैं। परिमित त्रस और अनन्त स्थावर हैं। शाश्वत-धर्मास्तिकाय आदि, कृत-प्रयोगज-घटादि, विश्रसा-सन्ध्या, बादलों आदि का रंग, ये सभी त्रस आदि सूत्र में स्वरूप से वर्णित हैं। नियुक्ति, संग्रहणी, हेतु, उदाहरण आदि अनेक प्रकार से जिनप्रज्ञप्त भाव-पदार्थ, सामान्यरूप से कहे गए हैं। नामादि से प्रज्ञप्त हैं। विस्तार से कथन किए गए हैं। उपमान आदि से और मिगमन से दिखलाए गए हैं। ___आचार-आचारांग को ग्रहण करने वाला, उसके अनुसार क्रिया करने वाला, आचार की साक्षात् मूर्ति बन जाता है। इस प्रकार वह भावों का ज्ञाता हो जाता है, इसी प्रकार विज्ञाता भी। इस प्रकार आचारांग सूत्र में चरण-करण की प्ररूपणा की गई है। यह आचारांग का स्वरूप है। सूत्र ४६ ॥ ____टीका-नामानुसार इस अंग में मुनि आचार का वर्णन किया गया है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं, प्रत्येक श्रुतस्कन्ध अध्ययनों में और प्रत्येक अध्ययन उद्देशकों में या चूलिकाओं में विभाजित आचरण को आचार कहते हैं अथवा पूर्वपुरूषों द्वारा जिस ज्ञानादि की आसेवन विधि का आचरण किया गया है, उसे आचार कहते हैं। इस प्रकार का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र को भी आचार कहते हैं। 'आयारे णं' यह पद करणभूत अथवा आधारभूत में ग्रहण करना चाहिए। यदि 'आयारेणं' ऐसा लिखें तो यह पद करणभूत स्वीकृत है। 'आयारे णं' यह पद आधारभूत के रूप में स्वीकृत है। ‘णं' वाक्य अलंकार में प्रयुक्त हुआ है। यथा-अनेनाचारेण करणभूतेन अथवा आचारे-आधारभूते-इत्यादि जिसके द्वारा श्रमण निर्ग्रन्थों के आचार विषयक शिक्षा मिल सके अथवा जिसमें श्रमण निर्ग्रन्थों का *434
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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