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________________ उवएसरुइ - उपदेशरुचि, त्ति - इस प्रकार, नायव्वो- जानना चाहिए, उ - पादपूर्ति में, च-पुन:, एव - अवधारणार्थक है। मूलार्थ - जो साधक किसी छद्मस्थ के द्वारा अथवा जिन- देव के द्वारा इन पूर्वोक्त भावों को सुनकर उन पर श्रद्धा करता है उसे उपदेश - रुचि कहते हैं। टीका–जो साधक तीर्थंकरोपदिष्ट इन पूर्वोक्त जीवादि पदार्थों को उनके यथार्थ स्वरूप को छद्मस्थ महासाधक के द्वारा, अथवा केवली भगवान के द्वारा श्रवण करके उनमें श्रद्धान करता है उसको उपेदशरुचि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि श्रवण के अनन्तर जो रुचि उत्पन्न हो, वह उपदेशरुचि है। यहां पर छद्मस्थ का अर्थ अल्पज्ञ और जिन का अर्थ सर्वज्ञ है । सारांश यह है कि उक्त तत्वों का उपदेश चाहे सर्वज्ञ के द्वारा प्राप्त हो अथवा असर्वज्ञ से उपलब्ध हुआ हो, किन्तु धर्म में जो रुचि उत्पन्न हुई है वह उपदेशमूलक होनी चाहिए। अब आज्ञारुचि के विषय में कहते हैं रागो दोसो मोहो, अन्नाणं जस्स अवगयं होइ । आणाए रोयंतो, सो खलु आणारुई नाम ॥ २० ॥ 1 रागो द्वेषो मोहः, अज्ञानं यस्यापगतं भवति । आज्ञया रोचमानः सः खल्वाज्ञारुचिर्नाम ॥ २० ॥ पदार्थान्वयः - रागो - राग, दोस्रो- द्वेष, मोहो - मोह, अन्नाणं- अज्ञान, जस्स - जिस का, अवगयं-अपगत-दूर, होइ - हो जाता है, आणाए - आज्ञा से, रोयंतो- रुचि करता है, सो - वह, खलु - निश्चय से, आणारुई - आज्ञारुचि, नाम-नाम वाला है। मूलार्थ - जिस साधक के राग, द्वेष, मोह और अज्ञान दूर हो गए हैं तथा जो आज्ञा से रुचि करता है, उसको आज्ञारुचि कहते हैं। टीका - प्रस्तुत गाथा में आज्ञारुचि का स्वरूप एवं लक्षण बताया गया है। जिस आत्मा के राग-द्वेषादि ं क्षय हो गए हों और आचार्यादि की आज्ञा से जो तत्त्वार्थ पर श्रद्धान करता है वही आज्ञारुचि कहलाता है। यहां पर राग, द्वेष, मोह और अज्ञान का सर्वथा क्षय नहीं, किन्तु आंशिक क्षय समझना चाहिए। इनके आंशिक क्षय होने पर ही आज्ञा के पालन में रुचि उत्पन्न होती है। जिस आत्मा के राग-द्वेषादि सर्वथा क्षय हो जाते हैं, उसमें तो कैवल्य की उत्पत्ति हो जाने से वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा जीवन्मुक्त हो जाता है। उसके लिए आत्म-विकास की इस आरम्भिक दशा के कारणभूत रुचि - सम्यक्त्व की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। अब सूत्र - रुचि का लक्षण बताते हैं - जो सुत्तमहिज्जन्तो, सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं । अंगेण बाहिरेण व, वो सुत्तरुइ ति नायव्वो ॥ २१ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [८५] मोक्खमग्गगई अट्ठावीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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