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________________ अथ सारथिर्विचिन्तयति, खलुंकैः समागतः । कि मम दुष्टशिष्यैः ? आत्मा मेऽवसीदति ॥ १५ ॥ पदार्थान्वयः-अह-अथ, सारही-सारथि, विचिन्तेइ-चिन्तन करता है, खलुंकेहिं-दुष्टों के द्वारा, समागओ-श्रम को प्राप्त हुए, मज्झ-मुझे, किं-क्या प्रयोजन है, दुट्ठसीसेहि-दुष्ट शिष्यों से, मे-मेरी, अप्पा-आत्मा, अवसीयई-अवसाद अर्थात् ग्लानि को प्राप्त होती है। मूलार्थ-जैसे उन दुष्ट पशुओं द्वारा श्रम को प्राप्त हुआ सारथि विचार करता है, वैसे ही दुष्ट शिष्य मिलने पर आचार्य विचार करते हैं कि इन दुष्ट शिष्यों से मुझे क्या प्रयोजन है ? क्योंकि इनके संसर्ग से मेरी आत्मा ग्लानि को प्राप्त हो रही है। टीका-दुष्ट पशुओं से वास्ता पड़ने पर खेद को प्राप्त हुए वाहक की भांति अविनीत शिष्यों से खेदित होते हुए गर्गाचार्य मन में विचारने लगे कि जब अनेक प्रकार से शिक्षा देने पर भी ये दुष्ट शिष्य सन्मार्ग पर नहीं आते तो इनसे मुझे क्या लाभ ? प्रत्युत इनके सहवास से मेरी आत्मा में ग्लानि उत्पन्न हो रही है, अतः इनके संग का त्याग करके अपनी आत्मा का कल्याण करना ही. श्रेयस्कर है। . यहां पर जो सारथी पद दिया गया है, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि जैसे दुष्ट वृषभादि पशुओं के चलाने से सारथी को अधिक श्रम उठाना पड़ता है, उसी प्रकार धर्म-सारथी धर्माचार्य को भी अविनीत शिष्यों को सुशिक्षित बनाने अर्थात् धर्म-यान में जोड़ने के लिए अधिक श्रान्त होना पड़ता है। इस कथन से यह भी प्रमाणित होता है कि जिसका संग करने से ज्ञानादि सद्गुणों का लाभ हो उसी का संग करना चाहिए और जिसके सहवास से कुछ लाभ न हो प्रत्युत हानि हो, उसका संग त्याग देना . ही श्रेष्ठ है। ____ अतः इस प्रकार की अविनीत शिष्य-मण्डली को त्याग कर तप में प्रवृत्त होना ही श्रेयस्कर है, अब इसी विषय में पुनः कहते हैं - जारिसा मम सीसा उ, तारिसा गलिगद्दहा । गलिगद्दहे जहित्ताणं, दढं पगिण्हई तवं ॥ १६ ॥ यादृशा मम शिष्यास्तु, तादृशा गलिगर्दभाः । गलिगर्दभांस्त्यक्त्वा, दृढं प्रगृह्णामि तपः ॥ १६ ॥ __ पदार्थान्वयः-जारिसा-जैसे, मम-मेरे, सीसा-शिष्य हैं, तारिसा-वैसे ही, गलिगद्दहा-गलि गर्दभ हैं, गलिगद्दहे-गलि गर्दभों को, जहित्ताणं-छोड़कर, दढं-दृढ़ता के साथ, तवं-तप को, पगिण्हई-ग्रहण करूं, उ-पाद पूर्ति में। मूलार्थ-जैसे गलिगर्दभ होते हैं, ठीक उसी प्रकार के ये मेरे शिष्य हैं, सो इनको छोड़ कर मैं दृढ़ता के साथ तप को ग्रहण करता हूँ। ____टीका-प्रस्तुत गाथा में अविनीत शिष्यों के लिए दुष्ट गर्दभ की उपमा इसलिए दी गई है कि वे बार-बार ताड़ना करने पर भी उलटे ही चलते हैं और वृषभादि पशुओं की अपेक्षा गर्दभ को नीच भी इसीलिए माना गया है कि वह अत्यन्त ढीठ होता है। इसी प्रकार जो शिष्य अविनीत हैं, गुरुजनों की उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [७०] खलुकिज्जं सत्तवीसइमं अज्झयणं.
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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