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________________ होगी, अपितु कहीं बाहर गई हुई होगी।" तब आचार्य महाराज ने कहा कि "वत्स ! तुम बातें मत बनाओ, अपितु वहां जाकर अमुक वस्तु ले आओ।" इस पर वह शिष्य कहता है कि यदि आपका ऐसा ही आग्रह है तो कृपा करके इस कार्य के लिए किसी और साधु को भेज दीजिए, क्योंकि मुझसे अतिरिक्त अन्य साधु भी इस कार्य को कर सकते हैं, फिर मुझे ही इस कार्य के लिए बार-बार क्यों कहा जाता है ! इत्यादि - अब इसी विषय में फिर कहते हैं - पेसिया पलिउंचन्ति, ते परियन्ति समन्तओ । रायवेटिंठं व मन्नन्ता, करेन्ति भिउडिं मुहे ॥ १३ ॥ प्रेषिताः परिकुञ्चन्ति, ते परियन्ति समन्तात् । राजवेष्टिमिव मन्यमानाः, कुर्वन्ति भृकुटिं मुखे ॥ १३ ॥ पदार्थान्वयः-पेसिया-भेजे जाने पर, पलिउंचन्ति-कार्य का अपलाप अर्थात् गोपन करते हैं, ते-वे, परियन्ति-परिभ्रमण करते हैं, समन्तओ-सर्व दिशाओं में, रायवेठिं व-राज-आज्ञावत् कार्य को, मन्नन्ता-मानते हुए, भिउडिं-भृकुटी, मुहे-मुख पर, करेन्ति-करते हैं, भृकुटी-चढ़ाते हैं। . मूलार्थ-किसी कार्य के लिए भेजे जाने पर वे शिष्य उस कार्य का अपलाप करते हैं और सर्व दिशाओं में घूमते रहते हैं तथा कार्य को राज-आज्ञा की तरह मानते हुए भृकुटी चढ़ाते हैं। टीका-प्रस्तुत गाथा में भी पूर्वोक्त विषय का ही वर्णन किया गया है। जैसे कि-"गुरु ने किसी कार्य के लिए भेजा, परन्तु वह कार्य तो किया नहीं मात्र इधर-उधर घूमकर चले आए और जब गुरु ने पूछा कि-"जिस कार्य के लिए तुमको भेजा था वह तुम कर आए हो?" तब उत्तर देते हैं-"आपने कब हमको अमुक कार्य के लिए जाने को कहा था ?" अथवा-यूं ही कह देता है "हमने वहां पर उनको देखा ही नहीं। इत्यादि प्रकार से कुशिष्य गुरु के बताए हुए कार्य का अपलाप करते हैं। यदि 'पेसिया' के स्थान पर 'पोसिया' पाठ हो तो उसका अर्थ यह होगा कि-गुरु ने आहारादि के द्वारा उनका जो पोषण किया था, उसका उपकार न मानते हुए यह कहते हैं कि गुरु ने हमारे ऊपर क्या उपकार किया है ? परन्तु यह पाठ समीचीन नहीं, क्योंकि आगामी गाथा में 'पोसिया' शब्द का उल्लेख आया है जो कि प्रकरण-संगत है। ___ ऐसे कुशिष्य काम करने के भय से गुरुओं के पास तो बैठते नहीं, परन्तु इधर-उधर चारों दिशाओं में घूमते रहते हैं तथा जैसे कोई जबरदस्ती की हुई राज-आज्ञा को मानता हुआ भृकुटी को चढ़ाता है, अर्थात् प्रसन्नता-पूर्वक उसे स्वीकार नहीं करता, ठीक उसी प्रकार गुरु की आज्ञा को सुनकर वे भृकुटी चढ़ाते हैं, अर्थात् गुरु की आज्ञा को प्रसन्नता से स्वीकार नहीं करते। १. 'राजवेष्टिमिव'-नृपतिहठप्रवर्तितकृत्यमिव मन्यमानाः-मनसि अवधारयन्त" इति टीकाकारः। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [६८] खलुंकिन्जं सत्तवीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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