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________________ खलुंकान् यस्तु योजयति, विध्यमानः क्लिश्यति । असमाधिं च वेदयति, तोत्रकस्तस्य च भज्यते ॥ ३ ॥ पदार्थान्वयः-जो-जो कोई, खलुंके-दुष्ट वृषभों को, जोएइ-शकटादि में जोड़ता है, उ-निश्चय ही वह, विहम्माणो-ताड़ता हुआ, किलिस्सइ-क्लेश को पाता है, च-और, असमाहि-असमाधि को, वेएइ-भोगता है, से-उसका, तोत्तओ-तोत्रक, य-भी, भज्जई-टूट जाता है। __मूलार्थ-यदि कोई व्यक्ति शकटादि में दुष्ट बैलों को जोतता है तो वह उनको ताड़ता हुआ क्लेश को प्राप्त होता है, असमाधि का अनुभव करता है। (यहां तक कि बैलों को मारते-मारते) उसका तोत्रक अर्थात् चाबुक भी टूट जाता है। . टीका-इस गाथा में अविनीत अर्थात् दुष्ट बैलों को शकटादि में जोड़ने से वाहक को जिस कष्ट-परम्परा का अनुभव करना पड़ता है, उसका दिग्दर्शन कराया गया है। दुष्ट बैलों को जोड़ने से एक तो उनको ताड़ना करते हुए वाहक को क्लेश होता है, दूसरे उसके चित्त में असमाधि-व्याकुलता उत्पन्न होती है, तीसरे ताड़ना करते-करते यहां तक परिणाम होता है कि वह जिस चाबुक आदि से उनकी ताड़ना करता है, वह भी टूट जाती है, कारण कि बैल शठ हैं, वे वाहक की इच्छानुसार नहीं चलते, अत: उसको उन पर क्रोध आता है और क्रोध के वशीभूत हुआ वह उनको निर्दयता के साथ मारता है, जिससे कि उसको क्लेश उत्पन्न होता है, इत्यादि। अब उसके क्रोध का और वृषभों की दुष्टता का व्यावहारिक फल बताते हैं - एगं डसइ पुच्छम्मि, एगं विन्धइऽभिक्खणं । एगो भंजइ समिलं, एगो उप्पह-पट्ठिओ ॥४॥ एक दशति पुच्छे, एकं विंध्यत्यभीक्ष्णम् । . . एको भनक्ति समिलाम्, एक उत्पथ-प्रस्थितः ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः-एगं-एक को, पुच्छम्मि-पूंछ में, डसइ-दंश देता है, एगं-एक को, अभिक्खणं-बार-बार, विन्धइ-तोत्रादि से वेधता है, एगे-एक, समिलं-समिला अर्थात् जुए को, भंजइ-तोड़ देता है, एगो-एक, उप्पह-उत्पथ में, पट्ठिओ-प्रस्थित हो जाता है। मूलार्थ-तब चालक एक की पूंछ को दंश देता है, अर्थात् मरोड़ता है और दूसरे को बार-बार तोत्रादि से वेधता है। तब एक दुष्ट वृषभ समिला अर्थात् जुए को तोड़ देता है और दूसरा उत्पथ में भाग जाता है। टीका-जब वे दुष्ट बैल वाहक की इच्छा के अनुसार गमन नहीं करते, तब वह गाड़ीवान क्रोध में आकर उनकी पूंछ को काटता है-मरोड़ता है और बार-बार उनको चाबुक की नोक चुभोता है। तब क्रोध में आए हुए वे दुष्ट बैल भी जुए को तोड़कर इधर-उधर भाग जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वाहक और बैल दोनों ही परम दुःखी होते हैं। उपलक्षणतया अश्लील वचनों का भी ग्रहण कर लेना, अर्थात् ताड़ना के अतिरिक्त वाहक को अनेक प्रकार के अश्लील शब्द भी कहने पड़ते हैं। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [६२] खलुंकिग्जं सत्तवीसइमं अज्झयणं .
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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