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________________ के अनर्थकारी कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं, वधिक लोग जीवों के वध में उद्यत हो जाते हैं और विषयी लोग विषयों में निमग्न हो जाते हैं। अत: संयमशील साधु को इन सब बातों का विचार करके अपने धर्म-कृत्य की आराधना करनी चाहिए। यहां पर समस्त प्रकार की ध्यान-क्रियाओं का स्वाध्याय में ही समावेश समझ लेना चाहिए। अब स्वाध्याय के अनन्तर करणीय कृत्य का वर्णन करते हैं - " पोरिसीए . चउब्भाए, वन्दिऊण तओ गुरुं । पडिक्कमित्तु कालस्स, कालं तु पडिलेहए ॥ ४६ ॥ पौरुष्याश्चतुर्भागे, वन्दित्वा ततो गुरुम् । ... प्रतिक्रम्य कालस्य, कालं तु प्रतिलेखयेत् ॥ ४६ ॥ पदार्थान्वयः-पोरिसीए-पौरुषी के, चउब्भाए-चतुर्थभाग में, गुरु-गुरु की, वन्दिऊण-वन्दना करके, तओ-तदनन्तर, पडिक्कमित्तु-प्रतिक्रमण करके, कालस्स-काल, तु-फिर, कालं-प्रभात काल की, पडिलेहए-प्रतिलेखना करे। मूलार्थ-पौरुषी के चतुर्थ भाग में गुरु की वन्दना करके तदनन्तर काल को प्रतिक्रम करके प्रातःकाल की प्रतिलेखना करे। टीका-जिस पौरुषी में स्वाध्याय का आरम्भ किया था, उसका जब चतुर्थ भाग अर्थात् दो घड़ी प्रमाण समय शेष रह जाए, तब गुरु की वन्दना करके काल का प्रतिक्रम करे, अर्थात् स्वाध्यायः काल को छोड़ कर आवश्यक करने के समय की अर्थात् प्रातःकाल की प्रतिलेखना करे। __यहां पर 'कालस्स' का अर्थ वैरात्रिक काल है ('प्रतिक्रम्य कालस्य-वैरात्रिकस्य' टीका) और द्वितीय काल शब्द से प्रभात-काल का ग्रहण अभिमत है (कालं-प्राभातिकम् ) तात्पर्य यह है कि जब चतुर्थ प्रहर का चतुर्थ भाग शेष रह जाए, तब साधु प्रतिक्रमण के समय को जानता हुआ स्वाध्याय को छोड़कर आवश्यक के समय को ग्रहण करे। कारण यह है कि आवश्यक की सम्पूर्ण क्रिया अनुमानतः दो घड़ी प्रमाण काल में समाप्त हो जाती है और उस क्रिया में रात्रि-संबंधी अतिचारों का चिन्तन किया जाता है। 'ण' शब्द यहां पर वाक्यालंकार में है और 'तु' एव अर्थ का बोधक है। अब प्रस्तुत आवश्यक की विधि का निरूपण करते हैं, यथा - आगए कायवोस्सग्गे, सव्वदुक्खविमोक्खणे । काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ॥ ४७ ॥ आगते कायव्युत्सर्गे, सर्वदुःखविमोक्षणे । कायोत्सर्गं ततः कुर्यात्, सर्वदुःखविमोक्षणम् ॥ ४७ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [५४] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं ।
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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