SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपसर्ग में भी आहार का त्याग देना अच्छा है, जैसे-अर्जुन माली के शरीर में मुद्गरपाणि यक्ष ने प्रवेश किया हुआ था, तब उसके मिलने पर सुदर्शन सेठ ने आहार का त्याग कर दिया। तात्पर्य यह है कि रोग और उपसर्ग में आहार के त्याग से इन दोनों की शीघ्र निवृत्ति हो जाती है। तीसरे-ब्रह्मचर्य-गुप्ति के लिए भी आहार का त्याग लाभप्रद है। यदि आहार करने से ब्रह्मचर्य की पूर्णतया रक्षा नहीं हो सकती, तो उसको त्याग देना चाहिए। खाने से यदि विकारों की उत्पत्ति विशेष होती हो तो उसको त्याग कर ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी ही चाहिए। चतुर्थ-प्राणियों की दया के लिए आहार का त्याग कर देना चाहिए, जैसे-वर्षाकाल में अधिक वर्षा के होने से भूमि पर अप्काय जीव अधिक समय तक सचित्त भाव से रहते हैं तथा कुन्थु आदि सूक्ष्म जीवों की अधिकता हो जाती है, तब उन जीवों की रक्षा के लिए आहार की गवेषणा में प्रवृत्त न होना ही श्रेष्ठ है। पांचवें-तप के वास्ते भी आहार का त्याग करना आवश्यक है, जैसे कि उपवास आदि जब करने हैं, तब आहार का त्याग कर दिया जाता है। छठे-जब कि यह दृढ़ निश्चय हो जाए कि अब शरीर नहीं रहेगा और छूटने का समय बहुत निकट आ गया है, तब अवशिष्ट आयु भर के लिए अनशनव्रत धारण कर लेना चाहिए, अर्थात् आहारादि का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। सारांश यह है कि पूर्व कहे गए षट्कारणों के विद्यमान होने पर भी यदि इन उक्त छ: कारणों में से कोई कारण उपस्थित हो जाए, तब विचारशील साधु और साध्वी को आहार की गवेषणा नहीं करनी चाहिए, इसके अतिरिक्त यदि कोई अन्य साधु व साध्वी गवेषणा करके आहार लाया हो, तो उसे भी ग्रहण नहीं करना चाहिए, यही इस गाथा का फलितार्थ है। . ___ अब इसी विषय में पुनः कहते हैं कि-आहार की गवेषणा करता हुआ साधु किस विधि से और कितने प्रमाण क्षेत्र में भिक्षा के लिए भ्रमण करे, यथा - ... अवसेसं भण्डगं गिज्झ, चक्खुसा पडिलेहए । परमद्धजोयणाओ, विहारं विहरए मुणी ॥ ३६ ॥ अवशेष भाण्डकं गृहीत्वा, चक्षुषा प्रतिलेखयेत् । परममर्धयोजनात्, विहारं विहरेन्मुनिः ॥ ३६ ॥ पदार्थान्वयः-अवसेसं-अवशेष, भण्डगं-भांडोपकरण को, गिज्झ-ग्रहण करके, चक्खुसा-चक्षुओं से, पडिलेहए-प्रतिलेखना करे, परमद्ध-परमाद्ध, जोयणाओ-योजन प्रमाण, विहार-विहार करके, विहरए-विचरे, मुणी-मुनि।। ___ मूलार्थ-मुनि अब शेष भांडोपकरणों को ग्रहण करके उसकी चक्षुओं से प्रतिलेखना करे और परमार्द्ध योजन प्रमाण विचरण करे। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४७] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy