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________________ साधुओं की अवहेलना करता है-उनमें नाना प्रकार के दोषों की उद्भावना करता है-वह किल्विषिकी भावना से भावित होता है। कारण यह है कि दूसरों के दोषों का उद्भावन करने से उसकी आत्मा गुणों के बदले अवगणों का स्थान बन जाती है, उसकी आत्मा में केवल अवगण ही चक्र लगाते रहते हैं और माया अर्थात् कपट-युक्त होने से उसकी आत्मा में सरलता भी नहीं रहती। सारांश यह है कि इस प्रकार श्रुत की निन्दा करने वाला, वाणी द्वारा केवली की अवज्ञा करने वाला, धर्म-आचार्यों को दम्भी और जातिविहीन कहने वाला तथा संघ और साधुओं को ढोंगी एवं निर्माल्य बताने वाला पुरुष उक्त अवर्णवाद के प्रभाव से मृत्यु के पश्चात् किल्विष-भावना से भावित हुआ स्वर्ग में जाकर किल्विष-देवों में उत्पन्न होता है। ये किल्विषजाति के देव अन्य स्वर्गीय देवों के समक्ष निंद्य अथवा चांडाल के समान समझे जाते हैं और इनका निवास देवलोकों से बाह्यवर्ती स्थानों में होता है। तथा वहां से च्यव कर वे बकरे आदि अथवा अन्य मूक प्राणियों की श्रेणी में जन्म लेते हैं। यह किल्विष-भावना का फल है, इसलिए विचारशील पुरुष को और खास कर साधु को इस किल्विष-भावना को अपने हृदय में कभी स्थान नहीं देना चाहिए। अब शास्त्रकार आसुरी भावना के सम्बन्ध में कहते हैं अणुबद्धरोसपसरो, तह य निमित्तम्मि होइ पडिसेवी । एएहि कारणेहि, आसुरियं भावणं कुणइ ॥ २६७ ॥ अनुबद्धरोषप्रसरः, तथा च निमित्ते भवति प्रतिसेवी । एताभ्यां कारणाभ्याम्, आसुरीं भावनां कुरुते ॥ २६७ ॥ पदार्थान्वयः-अणुबद्धरोसपसरो-निरन्तर रोष का प्रसार करने वाला अत्यन्त क्रोधी, तह-तथा, य-समुच्चयार्थक है, निमित्तम्मि-निमित्तविषयक, पडिसेवी-प्रतिसेवना करने वाला, होइ-होता है, एएहि-इन, कारणेहि-कारणों से, आसुरियं-आसुरी, भावणं-भावना का, कुणइ-सम्पादन करता है। मूलार्थ-निरन्तर रोष का विस्तार करने वाला और त्रिकाल निमित्त का सेवन करने वाला जीव, इन कारणों से आसुरी-भावना को उत्पन्न करता है। टीका-यद्यपि पहले क्रम-प्राप्त मोह-भावना का उल्लेख करना चाहिए था, तथापि सूत्र की विचित्र गति होने से प्रथम आसुरी भावना का उल्लेख किया गया है। जो जीव निरन्तर रोष का विस्तार करता है, अर्थात् सदा क्रोधयुक्त रहता है और ज्योतिष-शास्त्र द्वारा अथवा भूकम्पादि-निमित्तों के द्वारा जो शुभाशुभ फल का कथन करता है, वह आसुरी भावना का सम्पादन करता है। तात्पर्य यह है कि निरन्तर क्रोध युक्त रहना और शुभाशुभ फल के उपदेश में प्रवृत्ति करना आसुरी भावना है। इस भावना से भावित पुरुष मृत्यु के पश्चात् असुरकुमारों में जाकर उत्पन्न होता है। ये देव वैमानिकों की अपेक्षा बहुत कम सुख और समृद्धि वाले होते हैं तथा परमाधर्मी देव इन्हीं की जाति में से होते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि आलोचना किए बिना आसुरी भावना में मृत्यु को प्राप्त हुआ जीव विराधक होता है, इसलिए आसुरी भावना से सदा पृथक् रहने का ही यत्न करना चाहिए और यदि किसी समय उक्त आसुरी भावों का हृदय में किसी निमित्त के वश से प्रादुर्भाव हो भी जाए तो उनकी आलोचना कर लेनी चाहिए, ताकि आत्मा में आराधकता बनी रहे, क्योंकि आराधक आत्मा हीन गति उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४८७] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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