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________________ टीका-तत्त्व में तत्त्वबुद्धि वा तत्त्व में अभिरुचि होने का नाम सम्यग्दर्शन है। किसी प्रकार के फल की इच्छा न रखकर धार्मिक क्रियाओं का आचरण करना अनिदानता कहा जाता है। आत्मा का शुद्ध परिणाम विशेष शुक्ललेश्या है। जो आत्मा सम्यग् दर्शन में अनुरक्त, निदानरहित, क्रियानुष्ठान करने वाली और शुक्ललेश्या से युक्त हैं उनको मृत्यु के पश्चात् परलोक में बोधिलाभ अर्थात् जिन-धर्म की प्राप्ति अनायास ही हो जाती है। तात्पर्य यह है कि पिछले जन्म के शुभ संस्कारों से आगामी जन्म में उनको सद्धर्म की प्राप्ति होते देर नहीं लगती । केवल प्राचीन संस्कारों की उद्बोधक - सामग्रीमात्र मिलने की आवश्यकता रहती है। अब फिर दुर्लभ - बोधि जीव के विषय में कहते हैं, यथामिच्छादंसणरत्ता, सनियाणा कण्हलेसमोगाढा । जे मरंति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥ २६० ॥ मिथ्यादर्शनरक्ताः सनिदानाः कृष्णलेश्यामवगाढाः । इति ये म्रियन्ते जीवाः, तेषां पुनर्दुर्लभा बोधिः ॥ २६० ॥ इय पदार्थान्वयः - जे - जो, जीवा - जीव, मिच्छादंसणरत्ता - मिथ्यादर्शन में रक्त हैं, सनियाणानिदानसहित और, कण्हलेसमोगाढा - कृष्णलेश्या में प्रतिष्ठित हैं, इय- इस प्रकार से जो जीव, मरंति-मरते हैं, तेसिं-उनको, पुण- फिर, बोही - बोधिलाभ, दुल्लहा - दुर्लभ है। मूलार्थ - जो जीव मिथ्यादर्शन में अनुरक्त, निदानसहित कर्म करने वाले और कृष्णलेश्या से युक्त हैं उनको मृत्यु के पश्चात् अन्य जन्म में बोधि की प्राप्ति होनी अत्यन्त कठिन है। टीका - इस गाथा में दुर्लभ बोधि जीव के लक्षण वर्णन किए गए हैं। यद्यपि यह गाथा पहले भी आ चुकी है, तथापि उसमें कृष्णलेश्या का उल्लेख नहीं किया गया था। कृष्णलेश्या वाला जीव भी मृत्यु के बाद बोधि अर्थात् सद्धर्म को प्राप्त नहीं कर सकता, एतदर्थ ही पृथक्रूप से गाथा का उल्लेख किया गया है। अब सद्दर्शनादि के महत्त्व का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं किजिणवणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करेंति भावेणं । अमला असंकिलिट्ठा, ते होंति परित्तसंसारी ॥ २६१ ॥ जिनवचनेऽनुरक्ताः, जिनवचनं ये कुर्वन्ति भावेन । अमला असंक्लिष्टाः, ते भवन्ति परीतसंसारिणः ॥ २६१ ॥ पदार्थान्वयः - जिणवयणे - जिन-वचन में, अणुरत्ता - अनुरक्त, जिणवयणं - जिनेन्द्र भगवान् के वचन का, जे - जो, भावेणं- भाव से, करेंति - अनुष्ठान करते हैं, ते-वे, अमला - मिथ्यात्वादिभाव - मल से रहित, असंकिलिट्ठा - रागादि क्लेश से रहित, परित्तसंसारी- अल्पसंसारी, होंति - होते हैं। मूलार्थ - जो पुरुष जिन-वचन में अनुरक्त हैं और जिन भगवान् के कथनानुसार क्रियानुष्ठान करते हैं वे मिथ्यात्वादि मल से और रागादि क्लेशों से रहित होने से अल्पसंसारी होते हैं। टीका - प्रस्तुत गाथा में जिन वचन अर्थात् आगमों पर श्रद्धा और विश्वास रखने वाले और उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४८२] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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