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________________ रखकर की जाए, तथा एक जानु को बाह्यान्तर करके जो प्रतिलेखना की जाए, वह भी एक वेदिका कहलाती है। यह उक्त प्रकार की पांचों ही प्रतिलेखनाएं प्रमाद - रूप होने से और शास्त्र - विपरीत होने से त्याज्य हैं, अर्थात् इस प्रकार की प्रतिलेखना न करनी चाहिए। एक हाथ तो दोनों जानुओं के मध्य में हो और एक हाथ दोनों जानुओं के बाहर हो । इस प्रकार से यत्न पूर्वक प्रमाद - रहित होकर की गई प्रतिलेखना शुद्ध-निर्दोष प्रतिलेखना कही जा सकती है। इसलिए उक्त छः प्रकार की प्रतिलेखना - सम्बन्धी दोषों को त्याग कर ही प्रतिलेखना करनी चाहिए। अब प्रतिलेखना के अन्य दोषों का दिग्दर्शन कराते हैं पसिढिलपलम्बलोला, एगामोसा अणेगरूवधुणा । कुणइ पमाणे पमायं, संकियगणणोवगं कुज्जा ॥ २७ ॥ प्रशिथिलं प्रलंबो लोलः, एकामर्षाऽनेकरूपधूना । कुरुते प्रमाणे प्रमाद, शंकिते गणनोपगं कुर्यात् ॥ २७ ॥ पदार्थान्वयः - पसिढिल - शिथिल वस्त्र पकड़ना, पलम्ब - विषम वस्त्र ग्रहण करना, लोला - वस्त्र को भूमि पर घसीटना, मसलना, एगामोसा - वस्त्र को मध्य से पकड़कर उसके कोनों का परस्पर संघर्षण करना, अणेगरूवधुणा - अनेक रूप से वस्त्र को धुनना, पमाणे- प्रस्फोटनादि की संख्या में, पमायं-प्रमाद, कुणइ-करता है, संकियं-शंकित होकर, गणणोवगं - गणना के उपयोग को, कुज्जा - करता है। मूलार्थ - दृढ़ता से रहित वस्त्र पकड़ना, विषम वस्त्र पकड़ना, वस्त्र को भूमि पर घसीटना, मसलना, वस्त्र को मध्य से पकड़कर झाड़ना, प्रमाणरहित वस्त्र को धुनना, प्रमाण में प्रमाद करना और शंका हो जाने पर गणना को प्राप्त होना, ये सब प्रतिलेखना के दोष कथन किए गए हैं। टीका - प्रस्तुत गाथा में भी प्रतिलेखना के दोषों का वर्णन किया गया है, जैसे कि - प्रतिलेखना करते समय वस्त्र को दृढ़ता से न पकड़ना तथा वस्त्र को विषम पकड़ कर प्रतिलेखना करना, वस्त्र के एक कोने को पकड़ कर सर्व वस्त्र को देख लेना । भूमि पर तथा हाथों में रख कर वस्त्र को मसलना व घसीटना और वस्त्र को मध्य से पकड़ कर झाड़ देना; तथा एक काल में वस्त्रों के कोनों का परस्पर संघर्षण करना। सूत्र में तीन स्फोटना की आज्ञा दी गई है; सो उस क्रम को छोड़कर अनेक प्रकार से वस्त्र को धुनना, हिलाना या फटकना, फिर प्रतिलेखना करते समय सूत्र में जो प्रतिलेखना का प्रमाण वर्णन किया है उसमें प्रमाद करना, प्रतिलेखना करते समय सूत्र में जो प्रतिलेखना का प्रमाण है उसके प्रमाण में शंका उत्पन्न हो जाए, तब संख्या की अंगुलियों पर गणना करने लग जाना, ये प्रतिलेखना- सम्बन्धी दोष शास्त्र में बताए गए हैं। संकलना करने पर इन सब दोषों की संख्या पच्चीस होती है। इन दोषों से युक्त प्रतिलेखना सदोष प्रतिलेखना है, और इनको त्यागकर जो प्रतिलेखना की जाती है वह निर्दोष प्रतिलेखना है । उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [४०] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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