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________________ मुक्त करने वाले, सज्झायं-स्वाध्याय को, कुज्जा-करे। मूलार्थ-दिन के प्रथम प्रहर के प्रथम चतुर्थ भाग में, भांडोपकरण की प्रतिलेखना करके फिर गुरुजनों को वन्दना करके दुःखों से मुक्त कराने वाले स्वाध्याय को करे।। टीका-प्रस्तुत गाथा में विशेष रूप से साधु की दिनचर्या का वर्णन किया गया है। जब साधु के द्वारा अपनी बुद्धि से दिन के चार भाग कल्पना कर लिए गए, तब उनमें से प्रथम विभाग के प्रथम चतुर्थ भाग में, अर्थात् सूर्योदय से दो घटिका प्रमाण समय पर्यन्त भांडोपकरण-उपधि-अर्थात् अपने धर्मोपकरणों की प्रतिलेखना करे, फिर गुरुओं को वन्दना करके स्वाध्याय में प्रवृत्त हो जाए, क्योंकि स्वाध्याय शारीरिक और मानसिक सर्व प्रकार के द:खों का विनाश करने वाला है। यहां पर इतना स्मरण रहे कि जिस प्रकार प्रातः और सांय काल में सेवन की हुई औषधि रोग की निवृत्ति और नीरोगता की वृद्धि करने वाली होती है, उसी प्रकार प्रथम और चौथे प्रहर में किया हुआ स्वाध्याय भी कर्मों के क्षय करने में विशेष समर्थ होता है, क्योंकि यह दोनों समय शान्त रस के उत्पादक हैं। अब फिर इसी विषय में कहते हैं पोरिसीए चउब्भाए, वन्दित्ताण तओ गुरुं । अपडिक्कमित्ता कालस्स, भायणं पडिलेहए ॥ २२ ॥ __पौरुष्याश्चतुर्भागे, वन्दित्वा ततो गुरुम् । अप्रतिक्रम्य कालं, भाजनं प्रतिलेखयेत् ॥ २२ ॥ . पदार्थान्वयः-पोरिसीए-पौरुषी के, चउब्भाए-चतुर्थ भाग में, तओ-तदनन्तर, गुरु-गुरु को, वन्दित्ताण-वन्दना करके, कालस्स-काल को, अपडिक्कमित्ता-अप्रतिक्रम करके, भायणं-भाजनों की, पडिलेहिए-प्रतिलेखना करे। मूलार्थ-पौरुषी के चतुर्थ भाग में गुरु को वन्दना करके काल का अप्रतिक्रम कर अर्थात् ठीक समय पर भाजनों की प्रतिलेखना करे। टीका-प्रस्तुत गाथा में प्रतिलेखना का समय बताते हुए कहते हैं कि जब प्रथम पौरुषी का चतुर्थ भाग शेष रह जाए, अर्थात् पादोन पौरुषी व्यतीत हो जाने पर द्वितीय पौरुषी के लगने में दो घटिका प्रमाण समय शेष हो, तब गुरु को वन्दना करके उनकी आज्ञा लेकर पात्रादि की प्रतिलेखना करे। सूत्र में जो “अपडिक्कमित्तु कालस्स-अप्रतिक्रम्य कालस्य" लिखा है उसका अभिप्राय यह है कि अभी तक स्वाध्याय के करने का समय था, परन्तु उसको छोड़कर, अर्थात् स्वाध्याय के लिए जो ज्ञान के चतुर्दश अतिचारों का ध्यान किया जाता है, उसको न करके, क्योंकि चतुर्थ प्रहर में फिर स्वाध्याय करना है, अत: पात्रों की प्रतिलेखना में लग जाए। प्रथम प्रहर में दो घड़ी तक और स्वाध्याय करना शेष था, उसको छोड़कर, अर्थात् उसकी समाप्ति के सूचक कायोत्सर्गादि न करके जो पात्रादि - उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३५] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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