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________________ तथापि वे अप्रधान त्रस हैं, अत: उनका प्रधान त्रसों में समावेश नहीं हो सकता। अग्नि और वायु के जीव एकेन्द्रिय जीव होने से अप्रधान कहे जाते हैं। इस कथन का अभिप्राय यह है कि द्रव्य और भाव से इन्द्रियां भी दो प्रकार की हैं, अर्थात् द्रव्य-इन्द्रिय और भाव-इन्द्रिय। यद्यपि कर्म-सत्ता की अपेक्षा से एकेन्द्रिय जीव में भी भावेन्द्रिय-पञ्चक की सत्ता विद्यमान है, तथापि एक से अधिक निर्वृत्त्युपकरण-रूप द्रव्य-इन्द्रिय के अभाव से एकेन्द्रिय जीवों में द्वीन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा अप्रधानता है, इसलिए पुण्य-कर्म की न्यूनाधिकता से जिन आत्माओं की जितनी द्रव्येन्द्रियां प्रकट हैं, उतनी इन्द्रियों की अपेक्षा से ही उनकी संज्ञा का निर्माण हुआ है। यथा जिनके स्पर्श और रसना ये दो इन्द्रियां हैं उनको द्वीन्द्रिय जीव कहते हैं। जिनके स्पर्श, रसना और घ्राण, ये तीन इन्द्रियां हैं उनको त्रीन्द्रिय जीव कहते हैं। स्पर्श, रसना, घ्राण और चक्षु-इन चार इन्द्रियों वाले जीवों की चतुरिन्द्रिय संज्ञा है। स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र-ये पांच इन्द्रियां जिनमें विद्यमान हों उनको पंचेन्द्रिय जीव कहा जाता है। इस प्रकार ये चार भेद प्रधान त्रसों के माने गए हैं। द्वीन्द्रिय जीव-निरूपण अब द्वीन्द्रिय जीवों के अवान्तर भेदों का उल्लेख करते हैं, यथा बेइंदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ १२७ ॥ द्वीन्द्रिय़ास्तु ये जीवाः, द्विविधास्ते प्रकीर्तिताः । पर्याप्ता अपर्याप्ताः, तेषां भेदाञ्च्छृणुत मे ॥ १२७ ॥ पदार्थान्वयः-जे-जो, बेइंदिया-दो इन्द्रियों वाले, जीवा-जीव हैं, उ-पुनः, ते–वे, दुविहा-दो प्रकार के, पकित्तिया-कथन किए गए हैं, पज्जत्तमपज्जत्ता-पर्याप्त और अपर्याप्त, तेसिं-उनके, भेए-भेदों को, मे-मुझसे, सुणेह-तुम श्रवण करो। मूलार्थ-हे शिष्य ! द्वीन्द्रिय जीव पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से दो प्रकार के हैं, अब उनके उत्तर भेदों को तुम मुझ से श्रवण करो ! टीका-श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्यों से कहते हैं कि दो इन्द्रियों वाले जो जीव हैं उनके पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद माने गए हैं, अर्थात् एक पर्याप्त-द्वीन्द्रिय और दूसरे अपर्याप्त-द्वीन्द्रिय। यद्यपि दो इन्द्रियों वाले जीव सूक्ष्म भी होते हैं, अत: अग्नि और वायु की तरह इनके सूक्ष्म और बादर ये अन्य दो भेद भी होने चाहिएं, तथापि सूक्ष्म शब्द से यहां पर उसी शरीर का ग्रहण अभिप्रेत है जो कि सूक्ष्म नाम-कर्म के उदय से उत्पन्न हुआ हो, परन्तु द्वीन्द्रिय जीवों में वह नहीं होता, इसलिए यहां पर उनके सूक्ष्म और बादर ये दो भेद नहीं किए गए, किन्तु इनके पर्याप्त और अपर्याप्त यही दो भेद मानने युक्ति -संगत हैं। अब द्वीन्द्रिय जीवों का निर्देश करते हैं, यथा किमिणो सोमंगला चेव, अलसा माइवाहया । वासीमुहा य सिप्पीया, संखा संखणगा तहा ॥ १२८ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ४२१] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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