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________________ अर्थात् पृथिवीकाय को यदि प्रवाह की अपेक्षा से देखा जाए तो वह अनादि-अनन्त है और स्थिति की अपेक्षा से सादि-सान्त माना गया है। तात्पर्य यह है कि ऐसा कोई भी समय नहीं होता जबकि पृथिवीकाय का अभाव हो, इसलिए वह अनादि-अनन्त है और जब पृथिवीकाय के जीवों की स्थिति का विचार करते हैं तब उनका आदि और अन्त दोनों ही प्रतीत होते हैं, इसलिए उसको सादि-सान्त भी कहा गया है। अब इनकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति का वर्णन करते हैं बावीससहस्साइं, वासाणुक्कोसिया भवे । आउठिई पुढवीणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥८० ॥ द्वाविंशतिसहस्राणि, वर्षाणामुत्कृष्टा भवेत् । आयुःस्थितिः पृथिवीनाम्, अन्तर्मुहुर्तं जघन्यका ॥ ८० ॥ पदार्थान्वयः-बावीससहस्साइं-बाईस सहस्र, वासाण-वर्षों की, उक्कोसिया-उत्कृष्ट, आउठिई-आयु की स्थिति, भवे-होती है, पुढवीणं-पृथिवीकाय के जीवों की, अन्तोमुहत्तं-अन्तर्मुहूर्त की, जहन्निया-जघन्य स्थिति होती है। मूलार्थ-पृथिवीकाय के जीवों की जघन्य आयु-स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की होती है। टीका-प्रस्तुत गाथा में पृथिवीकाय के जीवों की आयु-स्थिति का वर्णन किया गया है। उन की जघन्य आयु तो अन्तर्मुहूर्त की होती है और उत्कृष्ट आयु बाईस हजार वर्ष की मानी गई है। यह स्थिति काल-सापेक्ष और पृथिवीकाय को सादि-सान्त मान कर उसका वर्णन किया गया है तथा अन्तर्मुहूर्त से लेकर बाईस हजार वर्ष से जो न्यून हो वह आयु-स्थिति मध्यम कही जाती है और इसी को भवस्थिति भी कहते हैं। अब काय-स्थिति के विषय में कहते हैं असंखकालमुक्कोसा, अंतोमुहत्तं जहन्निया । कायठिई पुढवीणं, तं कायं तु अमुंचओ ॥ ४१ ॥ असङ्ख्यकालमुत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका । कायस्थितिः पृथिवीनां, तं कायं त्वमुञ्चताम् ॥ ८१ ॥ पदार्थान्वयः-अंसखकालं-असंख्यातकाल, उक्कोसा-उत्कृष्ट, अंतोमुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त, जहन्निया-जघन्य, कायठिई-कायस्थिति, पुढवीणं-पृथिवीकाय के जीवों की, तं-उस, काय-काय को, अमुंचओ-न छोड़ते हुओं की, तु-अवधारण अर्थ में है। मूलार्थ-पृथिवीकाय के जीवों की जघन्य-स्थिति तो अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट असंख्यात काल की कथन की गई है, परन्तु यदि उस काया का वे परित्याग न करें। ___टीका-यदि पृथिवीकाय का जीव मर कर पृथिवीकाय में ही उत्पन्न होता रहे तब उसका नाम कायस्थिति है और यह स्थिति जघन्य तो अन्तर्मुहूर्त की मानी गई है, अर्थात् जघन्य स्थिति में जीव अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही पृथिवीकाय से च्यव कर अन्य काय में उत्पन्न हो जाता है और उत्कृष्टता से उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३९८] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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