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________________ पदार्थान्वयः-अज्जुण-श्वेत, सुवण्णगमई-सुवर्णमयी, सा-वह, पुढवी-पृथिवी, निम्मला-निर्मल है, सहावेणं-स्वभाव से, उत्ताणग-उत्तानक, छत्तग-छत्रक के, संठिया-संस्थान-आकार पर है, जिणवरेहि-जिनेन्द्रों ने, भणिया-कहा है। ___ मूलार्थ-वह पृथिवी स्वभाव से निर्मल, श्वेत, सुवर्णमयी और उत्तान छत्र के समान आकार वाली जिनेन्द्र देवों ने कही है। ___टीका-वह ईषत्-प्राग्भार नाम की पृथिवी स्वभाव से ही श्वेत सुवर्ण के सदृश और अत्यन्त निर्मल तथा उत्तान छत्र के आकार-जैसी है। इस कथन से उसकी कृत्रिमता का निषेध किया गया है। तात्पर्य यह है कि वह पृथ्वी अनादि काल से ही उत्तान छत्र के आकार में अवस्थित है, तथा श्वेत सुवर्णमयी कहने से सुवर्ण की भी अनेक जातियां सूचित होती हैं और जिनेन्द्र-कथित होने से इसकी प्रामाणिकता ध्वनित की है। अब फिर कहते हैं संखंककुंदसंकासा, पंडुरा निम्मला सुहा । सीयाए जोयणे तत्तो, लोयंतो उ वियाहिओ ॥ ६१ ॥ शङ्खाङ्ककुन्दसङ्काशा, पाण्डुरा निर्मला शुभा । सीताया योजने ततः, लोकान्तस्तु व्याख्यातः ॥ ६१ ॥ पदार्थान्वयः-संख-शंख, अंक-अंक-रत्न विशेष, कुंद-कुन्दपुष्प, इनके, संकासा-समान, पंडुरा-श्वेत, निम्मला-निर्मल, सुहा-शुभ, सीयाए-सीता नाम की पृथ्वी के ऊपर, जोयणे-योजन के अन्तर में, तत्तो-उस पृथिवी से, लोयंतो-लोकान्त भाग, वियाहिओ-कथन किया है। ___ मूलार्थ-वह पृथिवी शंख, अंक और कुन्दपुष्प के समान अत्यन्त श्वेत, निर्मल और अतीव शुभ है, तथा सीता नाम की उस पृथिवी के ऊपर एक योजन के अन्तर में लोकान्त भाग है, ऐसा तीर्थंकर देवों ने प्रतिपादन किया है। ___टीका-जैसे शंख श्वेत होता है, तथा जैसे अंक-रत्न श्वेत और कांतिमय होता है, अथवा जिस प्रकार का सुन्दर श्वेत वर्ण वाला मुचकुन्द का पुष्प होता है, ठीक उसी प्रकार की अत्यन्त निर्मल और श्वेत-वर्ण-युक्त तथा कल्याण वा सुखकारक वह पृथिवी है। उसके ऊपर एक योजन के अन्तर में लोकान्त है, अर्थात् उस पृथिवी से लोकान्त एक योजन के अन्तर पर है तथा अन्य नामों की भांति उस पृथिवी का 'सीता' यह नाम भी है। अब लोकान्त में सिद्ध जीवों की स्थिति के विषय में कहते हैं जोयणस्स उ जो तत्थ, कोसो उवरिमो भवे । तस्स कोसस्स छब्भाए, सिद्धाणोगाहणा भवे ॥६२॥ १. बृहद्वृत्तिकार ने इस गाथा को मूल में ग्रहण नहीं किया, परन्तु अन्य सब मूल प्रतियों में इसका उल्लेख देखने में आता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३८८] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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