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________________ इस कथन से स्वलिंग की विशेषता सूचित होती है जो कि उसके अनुरूप ही है। कारण यह है कि स्वलिंग तो प्रायः होता ही मोक्ष के लिए है, अतएव उस लिंग में विशेष सिद्ध हों यह स्वाभाविक ही है। अब अवगाहना की अपेक्षा से सिद्धगति को प्राप्त होने वाले जीवों की संख्या का उल्लेख करते हैं, यथा उक्कोसोगाहणाए य, सिज्झते जुगवं दुवे । चत्तारि जहन्नाए, जवमज्झठुत्तरं सयं ॥ ५३॥ उत्कृष्टावगाहनायाञ्च, सिध्यतो युगपद् द्वौ । चत्वारो जघन्यायाम्, मध्यायामष्टोत्तरं शतम् ॥ ५३ ॥ पदार्थान्वयः-उक्कोसोगाहणाए-उत्कृष्ट अवगाहना में, जुगवं-युगपत् अर्थात् एक समय में, दुवे-दो जीव, सिझंते-सिद्धगति को प्राप्त होते हैं, जहन्नाए-जघन्य अवगाहना में, चत्तारि-चार सिद्ध होते हैं, जवमझे-मध्यम अवगाहना में, अठुत्तरं सयं-एक सौ आठ सिद्ध होते हैं। मूलार्थ-एक समय में जघन्य अवगाहना से चार, उत्कृष्ट अवगाहना से दो और मध्यम अवगाहना से एक सौ आठ जीव सिद्धगति को प्राप्त होते हैं। टीका-उत्कृष्ट अवगाहना वाले जीव एक समय में दो सिद्ध होते हैं, तथा जघन्य अवगाहना वाले जीव एक समय में चार सिद्ध होते हैं और मध्यम अवगाहना वाले जीवों की संख्या एक सौ आठ होती है। उक्त गाथा के चतुर्थ चरण का अर्थ इस प्रकार है-“जवमज्झठुत्तरं सयं-यवमध्याष्टोत्तरं शतम्" अर्थात् जिस प्रकार यव का मध्य भाग होता है तद्वत् मध्यम अवगाहना होती है। अब क्षेत्र की अपेक्षा से सिद्धों की संख्या का प्रतिपादन करते हैंचउरुड्ढलोए य दुवे समुद्दे, तओ जले वीसमहे तहेव य । सयं च अठुत्तरं तिरियलोए, समएणेगेण सिज्झई धुवं ॥ ५४ ॥ चत्वार ऊर्ध्वलोके च द्वौ समुद्रे, त्रयो जले विंशतिरधस्तथैव च । शतञ्चाष्टोत्तरं तिर्यग्लोके, समयेनैकेन सिध्यति ध्रुवम् ॥ ५४ ॥ पदार्थान्वयः-चउरुड्ढलोए-ऊर्ध्व-लोक से चार, य-और, दुवे-दो, समुद्दे-समुद्र से, तओ-तीन, जले-शेष जलों में, तहेव-उसी प्रकार, वीस-बीस, अहे-अधोलोक में, च-तथा, अठुत्तरं सयं-अष्टोत्तर शत-१०८, तिरियलोए-तिर्यक्-लोक में, धुवं-निश्चय ही, समएणेगेणं-एक समय में, सिज्झई-सिद्धगति को प्राप्त होते हैं, उ-प्राग्वत्। मूलार्थ-एक समय में-ऊर्ध्वलोक में से ४, समुद्र में से २, नदी तथा अन्य जलाशयों में से ३, अधोलोक में से २० और तिर्यग्-लोक में से १०८ जीव सिद्ध होते हैं। ____टीका-मेरु पर्वत की चूलिकादि ऊंचे लोक से एक समय में ४ जीव सिद्धगति को प्राप्त होते हैं, एवं लवणोदधि में से २, नदी आदि अन्य जलाशयों में से ३, नीचे के लोक में से २० और मध्यलोक १. जवमज्झत्ति-यवमध्यमिव यवमध्यं मध्यमावगाहना तस्याम् अष्टोत्तरं शतम्। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३८४] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसंइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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