SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गन्धतो यो भवेत् सुरभिः, भाज्यः स तु वर्णतः । रसतः स्पर्शतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च ॥ २७ ॥ - पदार्थान्वयः-गंधओ-गन्ध से, जे-जो, सुब्भी-सुगन्धि वाला, भवे-है, से-वह, भइए-भाज्य है, वण्णओ-वर्ण से, रसओ-रस से, च-और, फासओ-स्पर्श से, य-तथा, संठाणओवि-संस्थान से भी, भइए-भाज्य है। मूलार्थ-जो पुद्गल सुगन्ध वाला है वह वर्ण से, रस से, स्पर्श से और संस्थान से भी भाज्य होता है, अर्थात् वर्णादि से युक्त होता है। टीका-सुगन्धयुक्त पुद्गल-स्कन्ध में-पांच वर्ण, आठ स्पर्श, पांच रस और पांच संस्थान, इस प्रकार २३ बोलों की भजना है, अर्थात् गन्धयुक्त पुद्गल-स्कन्ध में इन २३ गुणों की यथासम्भव स्थिति होती ही है। अब दुर्गन्ध के विषय में कहते हैं, यथा गंधओ जे भवे दुब्भी, भइए से उ वण्णओ। रसओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि य ॥ २८ ॥ गन्धतो यो भवेदुर्गन्धः, भाज्यः स तु वर्णतः । रसतः स्पर्शतश्चैव, भाज्यः संस्थानतोऽपि च ॥ २८ ॥ पदार्थान्वयः-गंधओ-गंध से, जे-जो पुद्गल, दुब्भी-दुर्गन्ध वाला, भवे-है, भइए-भाज्य है, से-वह, उ-फिर, वण्णओ-वर्ण से, रसओ-रस से, च-और, फासओ-स्पर्श से, य-तथा, संठाणओवि-संस्थान से भी, भइए-भाज्य है, एव-अवधारणार्थक है, उ-पादपूर्ति में है। . मूलार्थ-गन्ध से जो पुद्गल-स्कन्ध दुर्गन्धमय है वह वर्ण से, रस से, स्पर्श से और संस्थान से भी भाज्य होता है, अर्थात् उसमें भी उक्त वर्णादि की अपेक्षित स्थिति रहती ही है। ___टीका-सुगन्ध की तरह दुर्गन्धमय पुद्गल में भी वर्णादि २३ गुणों की यथासम्भव स्थिति होती है। इस प्रकार सुगन्ध और दुर्गन्ध के कुल ४६ भेद होते हैं, अर्थात् २३ गुण सुगन्ध के और २३ दुर्गन्ध के। अब रस के विषय में कहते हैं, यथा रसओ तित्तए जे उ, भइए से उ वण्णओ । गंधओ फासओ चेव, भइए संठाणओवि य ॥ २९ ॥ रसतस्तिक्तो यस्तु, भाज्यः स तु वर्णतः । गन्धतः स्पर्शतश्चैव, भाज्य: संस्थानतोपि च ॥ २९ ॥ पदार्थान्वयः-रसओ-रस से, जे-जो, तित्तए-तिक्त है, भइए-भाज्य है, से-वह, उ-फिर, वण्णओ-वर्ण से, गन्धओ-गन्ध से, च-और, फासओ-स्पर्श से, य-तथा, संठाणओवि-संस्थान से भी, भइए-भाज्य है, एव उ-प्राग्वत्। मूलार्थ-रस से जो पुद्गल-स्कन्ध तिक्त है वह वर्ण, गन्ध, स्पर्श और संस्थान से भी भजनायुक्त है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३७२] जीवाजीवविभत्ती णाम छत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy