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________________ मैथुन-क्रीड़ा, च-और, इच्छाकाम-अप्राप्त वस्तु की इच्छा, च-तथा, लोहं-लोभ को, संजओ-संयत, परिवज्जए-सर्व प्रकार से त्याग दे, तहा-तथा-समुच्चय अर्थ में है, एव-पादपूर्ति में है। ___मूलार्थ-संयत-संयमशील पुरुष हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन-क्रीड़ा, अप्राप्त वस्तु की इच्छा और लोभ, इन सब का परित्याग कर दे। टीका-प्रस्तुत गाथा में संयमशील साधक के लिए त्याग करने योग्य पाप के मार्गों का दिग्दर्शन कराया गया है। हिंसा करना, असत्य बोलना, चोरी में प्रवृत्त होना और मैथुन-क्रीड़ा का सेवन करना, अप्राप्त वस्तु की इच्छा और प्राप्त वस्तु में ममत्व, ये पांचों ही कर्मास्रव हैं, अर्थात् इनके द्वारा ही जीव पाप-कर्मों का संचय करता है, अतएव संयमी को इनके त्याग करने का उपदेश दिया गया है। ___ यहां पर इतना ध्यान रहे कि अप्राप्त वस्तु की इच्छा और लोभ-प्राप्त वस्तु में ममत्व-इन दोनों का परिग्रह में समावेश है, इसलिए (१) हिंसा, (२) असत्य, (३) स्तेय (४) अब्रह्म और (५) परिग्रह, ये पांच पापास्रव कहे जाते हैं। जब तक इनका त्याग न होगा, इनको सब प्रकार से रोका न जाएगा, तब तक कर्म-बन्धन से छूटकर मोक्ष-सुख की प्राप्ति का होना अशक्य ही नहीं, असम्भव भी है। अत: मोक्ष के साधक अहिंसादि मूल गुणों की रक्षा के लिए संयमी पुरुष को इन उक्त पाप-स्थानों का अवश्य परित्याग कर देना चाहिए। ___ अब साधु के निवास स्थान-उपाश्रय आदि के विषय में कहते हैं मणोहरं चित्तघरं, मल्लधूवेण वासियं । सकवाडं पंडुरुल्लोयं, मणसावि न पत्थए ॥४॥ मनोहरं . चित्रंगृहं, माल्यधूपेन वासितम् । सकपाटं पण्डुरोल्लोचं, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् ॥ ४ ॥ पदार्थान्वयः-मणोहरं-मन को हरने वाला, चित्तघरं-चित्रगृह, मल्ल-पुष्पमालाओं से, धूवेण-सुगन्धित पदार्थों से, वासियं-सुवासित, सकवाडं-कपाटसहित, पंडुरुल्लोयं-श्वेत वस्त्रों से सुसज्जित गृह की, मणसावि-मन से भी, न पत्थए-प्रार्थना अर्थात् इच्छा न करे। मूलार्थ-जो स्थान मन को लोभायमान करने वाला हो, चित्रों से सुशोभित हो, पुष्पमालाओं और अगर-चन्दनादि सुगन्धित पदार्थों से सुवासित हो तथा सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित और सुन्दर किवाड़ों से युक्त हो ऐसे स्थान की साधु मन से भी इच्छा न करे। टीका-प्रस्तुत गाथा में साधु के लिए निषिद्ध स्थान अर्थात् निवास करने के अयोग्य स्थान का उल्लेख किया गया है। साधु किस प्रकार के स्थान में न रहे, अब इस विषय का वर्णन करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि जो स्थान-उपाश्रय आदि चित्ताकर्षक है, नाना प्रकार के चित्रों से अलंकृत है तथा नानाविध पुष्पों और अगर-चन्दनादि सुगन्धित द्रव्यों से सुवासित हो रहा है एवं विविध प्रकार के चन्दोवा आदि वस्त्रों से सुसज्जित और सुन्दर किवाड़ों से युक्त है, ऐसे स्थान में शरीर से तो क्या, मन से भी रहने की साधु इच्छा न करे। कारण यह है कि कभी-कभी इस प्रकार का बाद्य सौन्दर्य भी आत्मा में बीजरूप से रहे हुए काम-रागादि को उत्तेजित करने में निमित्तरूप हो जाता है। 'पण्डुरोल्लोच' शब्द से चन्दोवा आदि विशिष्ट प्रकार के वस्त्रों का ग्रहण समझना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३४५] अणगारज्झयणं णाम पंचतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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