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________________ पदार्थान्वयः-अंतमुहुत्तम्मि-अन्तर्मुहूर्त के, गए-जाने पर, च-और, अंतमुहुत्तम्मि-अन्तर्मुहूर्त के, सेसए-शेष रहने पर, लेसाहि-लेश्याओं के, परिणयाहिं-परिणत होने से, जीवा-जीव, परलोयं-परलोक में, गच्छंति-जाते हैं; एव-निश्चयार्थक है। ___मूलार्थ-अन्तर्मुहूर्त के बीत जाने पर और अन्तर्मुहूर्त के शेष रहने पर लेश्याओं के परिणत होने से जीव परलोक में गमन करते हैं। टीका-जब लेश्या में परिणत हुए जीव को अन्तर्मुहूर्त हो गया हो और अन्तर्मुहूर्त उस लेश्या के जाने में रह गया हो, तात्पर्य यह है कि लेश्या को आए हुए एक अन्तर्मुहूर्त हो गया हो और एक अन्तर्मुहूर्त उसके जाने में शेष रह गया हो, उस समय जीव परलोक में जाता है। इस कथन का अभिप्राय यह है कि जब परलोकगमन की बेला में मृत्यु होते समय अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण आयु शेष रह जाती है, तब आगामी जन्म में प्राप्त होने वाली लेश्या का परिणाम उस जीव में अवश्य हो जाता है। फिर उसी लेश्या के साथ यह जीव परभव में जाता है। यदि ऐसा न माना जाए तो उत्तरभव की लेश्या का अन्तर्मुहूर्त तथा च्यवमान होने पर प्राग्भव की लेश्या का अन्तर्मुहूर्त, यह दोनों ही बातें सम्भव नहीं हो सकतीं। इसीलिए शास्त्र में कहा गया है कि जिस लेश्या के द्रव्य को लेकर जीव काल करता है उसी लेश्या ' में उत्पन्न हो जाता है। सारांश यह है कि इस जीव को जिस जन्म में जाना हो, अन्तर्मुहूर्त की आयु शेष रह जाने पर उस जन्म की लेश्या की परिणति उसमें अवश्यमेव हो जाती है। फिर उस लेश्या के प्रथम समय में वा चरम समय में कोई भी जीव काल नहीं करता, किन्तु उस परभव की लेश्या का अन्तर्मुहूर्त व्यतीत होने और अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर ही यह जीव परलोक को गमन करता है, तथा प्राग्भव-अन्तर्मुहूर्त और उत्तरभव-अन्तर्मुहूर्त, इन दो अन्तर्मुहूर्तों के साथ जीव का आयुकाल अवस्थित रहता है। अब प्रस्तुत अध्ययन का उपसंहार करते हुए उपादेय के विषय में कहते हैं कि तम्हा एयासि लेसाणं, आणुभावे वियाणिया । अप्पसत्थाओ वज्जित्ता, पसत्थाओऽहिट्ठिए मुणी ॥ ६१ ॥ - त्ति बेमि । इति लेसज्झयणं समत्तं ॥ ३४ ॥ तस्मादेतासां लेश्यानाम्, अनुभावान्विज्ञाय । अप्रशस्ता वर्जयित्वा, प्रशस्ता अधितिष्ठेन् मुनिः ॥६१ ॥ इति ब्रवीमि । इति लेश्याध्ययनं समाप्तम् ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः-तम्हा-इसलिए, एयासि-इन, लेसाणं-लेश्याओं के, आणुभावे-अनुभाव को, वियाणिया-विशेष रूप से जानकर, अप्पसत्थाओ-अप्रशस्त लेश्याओं को, वज्जित्ता-त्याग कर, .. उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३४१] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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