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________________ की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति केवल अन्तर्मुहूर्त्तमात्र होती है। इसके अतिरिक्त इस विषय में शास्त्रानुसार इतना और समझ लेना चाहिए कि पृथिवी, जल और वनस्पति काय के जीवों में प्रथम की चार लेश्याएं होती हैं। नारकी, अग्नि और वायु काय के जीव तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी-पंचेन्द्रिय तथा संमूछिम मनुष्य-इनमें प्रथम की तीन लेश्याएं होती हैं, परन्तु संज्ञी-पंचेन्द्रिय-तिर्यंच और संज्ञी-पंचेन्द्रिय-मनुष्य-इनमें छहों लेश्याओं का सद्भाव होता है। अब शुक्ललेश्या की स्थिति के विषय में कहते हैं, यथा महत्तद्धं तु जहन्ना, उक्कोसा होइ पुव्वकोडी उ । नवहि वरिसेहि ऊणा, नायव्वा सुक्कलेसाए ॥ ४६ ॥ अन्तर्मुहूर्तं तु जघन्या, उत्कृष्टा भवति पूर्वकोटी तु । नवभिर्व रूना, ज्ञातव्या शुक्ललेश्यायाः ॥ ४६ ॥ पदार्थान्वयः-मुहुत्तद्धं-अन्तर्मुहूर्त, तु-तो, जहन्ना-जघन्य स्थिति, उक्कोसा-उत्कृष्ट, होइ-होती है, पुव्वकोडी-एक करोड़ पूर्व की, नवहि-नव, वरिसेहि-वर्षों से, ऊणा-न्यून, सुक्कलेसाए-शुक्ललेश्या की स्थिति, नायव्वा-जाननी चाहिए। ___मूलार्थ-शुक्ललेश्या की जघन्य स्थिति तो अन्तर्मुहूर्त की होती है और उत्कृष्ट स्थिति नव वर्ष कम एक करोड़ पूर्व की जाननी चाहिए। ____टीका-केवली भगवान् में सदा शुक्ल लेश्या का ही सद्भाव होता है। शुक्ललेश्या की जघन्य स्थिति तो अन्तर्मुहूर्त की कही है और उत्कृष्ट स्थिति का कालमान नौ वर्ष कम एक करोड़ पूर्व का 'माना गया है। यहां पर नव वर्ष कम कहने का तात्पर्य वृत्तिकार यह बताते हैं कि आठ वर्ष की आयु में यद्यपि व्रत-ग्रहण के परिणाम तो हो सकते हैं, परन्तु इतनी स्वल्प वय में एक वर्ष दीक्षा-पर्याय से पहले शुक्ललेश्या का सद्भाव सम्भव नहीं हो सकता। इसलिए जिसकी करोड़ पूर्व की आयु है और वह नव वर्ष की आयु में दीक्षित होकर केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेता है तब उसमें नव वर्ष न्यून एक करोड़ पूर्व तक उत्कृष्ट मान से शुक्ललेश्या का सद्भाव हो सकता है। बस, इसी अभिप्राय से शुक्ललेश्या की उत्कृष्ट स्थिति में नव वर्षों की न्यूनता की गई है। • अब प्रस्तुत विषय का उपसंहार और अगले प्रतिपाद्य विषय का उपक्रम करते हैं एसा तिरियनराणं, लेसाणं ठिई उ वणिया होइ । तेण परं वोच्छामि, लेसाण ठिई उ देवाणं ॥ ४७ ॥ एषा तिर्यङ्नराणां, लेश्यानां स्थितिस्तु वर्णिता भवति । ततः परं वक्ष्यामि, लेश्यानां स्थितिस्तु देवानाम् ॥ ४७ ॥ १. इह च यद्यपि कश्चित् पूर्वको ह्यायुरष्टवार्षिक एव व्रतपरिणाममाप्नोति, तथापि नैताविद् वयःस्थस्य वर्षपर्यायादर्वाक् शुक्ललेश्यायाः संभवः इति नवभिर्वपैयूंना पूर्वकोटिरुच्यते। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३३३] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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