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________________ टीका-तेजोलेश्या की यह स्थिति ऐशान देवलोक की अपेक्षा से प्रतिपादित की गई है, क्योंकि उक्त देवलोक में केवल तेजोलेश्या ही होती है। अब पद्मलेश्या की स्थिति के विषय में कहते हैं, यथा मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, दस उदही होंति मुहुत्तमब्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा पम्हलेसाए ॥ ३८ ॥ मुहूर्ताई तु जघन्या, दशोदधयो भवन्ति मुहूर्त्ताधिका । . उत्कृष्टा भवति स्थितिः, ज्ञातव्या पालेश्यायाः ॥ ३८ ॥ पदार्थान्वयः-मुहत्तद्धं-अन्तर्मुहूर्त, तु-तो, जहन्ना-जघन्य, दस उदही-दस सागरोपम, मुहुत्तं-अन्तर्मुहूर्त, अब्भाहिया-अधिक, उक्कोसा-उत्कृष्ट, ठिई-स्थिति, होइ-होती है, पम्हलेसाए-पद्मलेश्या की, नायव्वा-जाननी चाहिए। मूलार्थ-पद्मलेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम की जाननी चाहिए। टीका-प्रस्तुत गाथा. में पद्मलेश्या की जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त अधिक दश सागर की कही गई है। . ___ अब शुक्ललेश्या की स्थिति का वर्णन करते हैं, यथा मुहत्तद्धं तु जहन्ना, तेत्तीसं सागरा महत्तहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा सुक्कलेसाए ॥ ३९ ॥ मुहूर्ताई तु जघन्या, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपम-मुहूर्ताधिका । उत्कृष्टा भवति स्थितिः, ज्ञातव्या शुक्ललेश्यायाः ॥ ३९ ॥ पदार्थान्वयः-मुहुत्तद्धं-अन्तर्मुहूर्त, तु-तो, जहन्ना-जघन्य, उक्कोसा-उत्कृष्ट, ठिई-स्थिति, होइ-होती है, मुंहुत्तहिया-अन्तर्मुहूर्त अधिक, तेत्तीसं-तेंतीस, सागरा-सागरोपम की, सुक्कलेसाए-शुक्ललेश्या की, नायव्वा-जाननी चाहिए। मूलार्थ-शुक्ललेश्या की जघन्य स्थिति तो अन्तर्मुहूर्त्तमात्र होती है और उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तमुहूर्त अधिक तेंतीस सागरोपम की जाननी चाहिए। टीका-प्रस्तुत गाथा में शुक्ललेश्या की स्थिति का वर्णन किया गया है। वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त सहित तेंतीस सागर की कही गई है, क्योंकि २६वें देवलोक में शुक्ललेश्या की उत्कृष्ट स्थिति इतनी ही प्रतिपादित है और अन्तर्मुहूर्त की अधिकता पूर्व जन्म की अपेक्षा से मानी गई है, यह तो ऊपर बतला ही दिया गया है, तथा मुहूर्त से अन्तर्मुहूर्त के ग्रहण करने में वृद्धसम्प्रदाय और आगमान्तरों में किया गया अन्तर्मुहूर्त शब्द का उल्लेख ही प्रमाण है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३२९] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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