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________________ से कृष्णलेश्या की स्थिति का जघन्य और उत्कृष्ट कितना समय है, अर्थात् वह कब तक रह सकती है, शिष्य के इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि कृष्णलेश्या की जघन्य स्थिति तो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है और उत्कृष्टता से उसका स्थितिमान एक अन्तर्मुहूर्त अधिक ३३ सागरोपम का है, अर्थात् इतने समय तक उसका सद्भाव रह सकता है। अर्द्धमुहूर्त और मुहूर्त से यहां पर अन्तर्मुहूर्त का ही ग्रहण अभीष्ट है, इसलिए इन दोनों शब्दों का अर्थ अन्तर्मुहूत्त ही समझना चाहिए । इस कथन का अभिप्राय यह है कि कहीं-कहीं पर समुदाय में प्रवृत्त हुआ शब्द उसके एक देश का ग्राहक भी होता है, अर्थात् ग्राम का कोई अंश जलने पर जैसे सारे ग्राम का नाम लिया जाता है, इसी प्रकार अन्तर्मुहूर्त के अर्थ में मुहूर्त शब्द का प्रयोग किया गया है, तथा 'सागर' शब्द से सागरोपम का ग्रहण अभीष्ट है, क्योंकि-'पद के एक देश से सम्पूर्ण पद का ग्रहण कर लिया जाता है, जैसे "भीम से भीमसेन का ग्रहण होता है" इसी न्याय से यहां पर भी सागर से सागरोपम का ग्रहण किया गया है। इसके अतिरिक्त ३३ सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति में जो एक अन्तर्मुहूर्त अधिक रखा गया है, उसका तात्पर्य यह है कि आगामी जन्म में जो लेश्या प्राप्त होने वाली होती है, वह मृत्यु के समय से एक मुहूर्त प्रथम ही आ जाती है। तात्पर्य यह है कि आगामी जन्म में जिस जीव को कृष्णलेश्या की प्राप्ति होनी सम्भव होती है, उस जीव को मृत्यु के समय से एक मुहूर्त प्रथम ही कृष्णलेश्या की प्राप्ति हो जाती है, इसीलिए कृष्णलेश्या की उत्कृष्ट स्थिति में एक अन्तर्मुहूर्त का अधिक समय जोड़ा गया है। इसी प्रकार अन्य लेश्याओं के विषय में भी समझ लेना चाहिए। . मुहत्तद्धं तु जहन्ना दसउदही-पलियमसंखभागमब्भहिया । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा नीललेसाए ॥ ३५ ॥ मुहूर्ताद्धं तु जघन्या, दशोदधि-पल्योपमासंख्यभागाधिका । ___ उत्कृष्टा भवति स्थितिः, ज्ञातव्या नीललेश्यायाः ॥ ३५ ॥ पदार्थान्वयः-मुहुत्तद्धं-अन्तर्मुहूर्त, तु-तो, जहन्ना-जघन्य, दसउदही-दस सागरोपम, पलियं-पल्योपम का, असंखभागमब्भहिया-असंख्यातवां भाग अधिक, उक्कोसा-उत्कृष्ट, ठिई-स्थिति, होइ-होती है, नीललेसाए-नीललेश्या की, नायव्वा-जानना चाहिए। मूलार्थ-नीललेश्या की जघन्य स्थिति तो अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भागसहित दश सागरोपम की जाननी चाहिए। टीका-प्रस्तुत गाथा में नीललेश्या की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन किया गया है। उसकी जघन्य स्थिति तो अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति का कालमान पल्योपम के असंख्यातवें भाग को साथ लिए हुए दस सागरोपम का है, परन्तु उत्कृष्ट स्थिति का यह कालमान धूम्र-प्रभा के उपरितन प्रस्तट की अपेक्षा से वर्णन किया गया है। शंका-कृष्णलेश्या की तरह यहां पर एक मुहूर्त की अधिकता का उल्लेख क्यों नहीं किया गया? - उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३२७] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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