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________________ पदार्थान्वयः-पंचासवप्पवत्तो-पांचों आस्रवों में प्रवृत्त-प्रमादयुक्त, तीहिं-तीनों गुप्तियों से, अगुत्तो-अगुप्त, य-और, छसु-षट्काय में, अविरओ-अविरत, तिव्वारंभ-तीव्र आरम्भ में, परिणओ-परिणत, खुद्दो-क्षुद्रबुद्धि, साहसिओ-साहसी-बिना विचारे काम करने वाला, नरो-नर, उपलक्षण से स्त्री आदि भी, निद्धंधसपरिणामो-निर्दयता के भावों वाला-निर्दयी, निस्संसो-नृशंस-हिंसादि कृत्यों में सन्देहरहित, अजिइंदिओ-अजितेन्द्रिय-इन्द्रियों को न जीतने वाला, एय-इन, जोगसमाउत्तो-योगों से युक्त, किण्हलेसं-कृष्णलेश्या को, परिणमे-परिणत होता है, तु-अवधारण अर्थ में है। मूलार्थ-पांचों आस्रवों में प्रवृत्त, तीनों गुप्तियों से अगुप्त, षट्काय की हिंसा में आसक्त, उत्कट भावों से हिंसा करने वाला, क्षुद्रबुद्धि, बिना विचारे काम करने वाला, निर्दयी, नशंस अर्थात् पाप-कृत्यों में शंकारहित, अजितेन्द्रिय-इंदियों के वशीभूत-इन उक्त क्रियाओं से युक्त जो व्यक्ति है, वह कृष्णलेश्या के भावों से परिणत होता है, अर्थात् वह कृष्णलेश्या वाला होता है। टीका-प्रस्तुत गाथाद्वय में कृष्णलेश्या के लक्षणों का वर्णन किया गया है कि किस जीव में कौन-सी लेश्या कार्य कर रही है, इस बात के यथार्थ निर्णय के लिए छओं लेश्याओं के लक्षणों को समझने की अत्यन्त आवश्यकता है। कृष्णलेश्यायुक्त जीव के क्या-क्या आचरण होते हैं और कैसे-कैसे विचार होते हैं, इस बात का विचार इस गाथाद्वय में बड़ी स्पष्टता से किया गया है। जैसे कि-जो व्यक्ति पांचों प्रकार के पापमार्गों-हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह में आसक्त है, मन, वचनं और काया को संयम में नहीं रखता, तथा जो पृथिवीकाय आदि षटूकाय की विराधना करने वाला है और हिंसाजनक तीव्र भावों को अन्तःकरण में रखने वाला, क्षुद्रबुद्धि, क्रूर, अजितेन्द्रिय तथा पारलौकिक भय से शून्य और निरन्तर भोगों में लगा हुआ है, वह कृष्णलेश्या का धारण करने वाला होता है। अब नीललेश्या का लक्षण बताते हैं, यथा इस्सा-अमरिस-अतवो, अविज्जमाया अहीरिया । गेही पओसे य सढे, पमत्ते रसलोलुए-सायगवेसए य ॥ २३ ॥ आरंभाओ अविरओ, खुद्दो साहस्सिओ नरो । एयजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे ॥ २४ ॥ ईयाऽमर्षातप अविद्या - अमायाऽहीकता । गृद्धिः प्रद्वेषश्च (यस्य) शठः, प्रमत्तो रसलोलुपः सातागवेषकश्च ॥ २३ ॥ __ आरम्भादविरतः, क्षुद्रः साहसिको नरः । एतद्योगसमायुक्तः, नीललेश्यां तु परिणमेत् ॥ २४ ॥ पदार्थान्वयः-इस्सा-ईर्ष्यायुक्त, अमरिस-अमर्ष अर्थात् कदाग्रहयुक्त, अतवो-तपश्चर्या से रहित, अविज्ज-विद्या से रहित, माया-छल-छपट करने वाला, अहीरिया-लज्जा से रहित, गेही-गृद्धियुक्त उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३२०] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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