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________________ वाले कर्म-पुद्गलों के रसविशेष को अनुभाव कहते हैं, लेश्याओं का कर्मों के साथ बड़ा ही घनिष्ठ सम्बन्ध है। कर्मों की स्थिति का कारण लेश्याएं हैं [कर्मस्थितिहेतवो लेश्याः ] जैसे दो पदार्थों को मिलाने में एक तीसरे लेसदार द्रव्य की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार आत्मा के साथ जो कर्मों का बन्ध होता हैं उसमें श्लेष अर्थात् सरेश की तरह लेश्याएं काम देती हैं। कर्मबन्धन में जो रस है उसका अनुभव भी लेश्याओं के द्वारा ही किया जाता है। योगों के परिणामविशेष को लेश्या कहते हैं [योगपरिणामो लेश्या] सयोगी-केवली नामक तेरहवें गुण-स्थान तक इन लेश्याओं का सद्भाव रहता है और जिस समय यह आत्मा अयोगी बन जाती है, अर्थात् चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेती है उसी समय वह लेश्याओं से रहित हो जाती है। इसलिए योगों के परिणामविशेष को लेश्या कहा गया है। पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार अब इस लेश्या नामक अध्ययन में वर्णनीय विषयों के निरूपण की सूचना देते हुए कहते हैं कि नामाइं वण्ण-रस-गंध-फास-परिणाम-लक्खणं । ठाणं ठिई गई चाउं, लेसाणं तु सुणेह मे ॥ २ ॥ नामानि वर्ण-रस-गन्ध-स्पर्श-परिणाम-लक्षणानि । स्थानं स्थितिं गतिं चायुः, लेश्यानां तु शृणुत मे ॥ २ ॥ पदार्थान्वयः-नामाई-नाम, वण्ण-वर्ण, रस-रस, गंध-गन्ध, फास-स्पर्श, परिणाम-परिणाम, लक्खणं-लक्षण, ठाणं-स्थान, ठिइं-स्थिति, गइं-गति, च-और, आउं-आयु, लेसाणं-लेश्याओं की, मे-मुझसे, सुणेह-श्रवण करो, तु-पादपूर्ति के लिए है। मूलार्थ-हे शिष्यो ! अब तुम मुझसे लेश्याओं के नाम, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयु के स्वरूप को श्रवण करो। टीका-इस गाथा में लेश्याओं के वर्णन-प्रस्ताव में एकादश द्वारों का उल्लेख किया गया है। इन एकादश द्वारों से लेश्याओं का वर्णन किया जाएगा, यथा-१. नाम-द्वार, २. वर्ण-द्वार, ३. रस-द्वार, ४. गन्ध-द्वार, ५. स्पर्श-द्वार, ६. परिणाम-द्वार, ७. लक्षण-द्वार, ८. स्थान-द्वार, ९. स्थिति-द्वार, १०. गति-द्वार और ११. आयु-द्वार। यहां द्वार शब्द का अर्थ है भेद। गुरु कहते हैं कि इन ११ द्वारों अर्थात् भेदों से मैं लेश्याओं का वर्णन करूंगा, उनको तुम सावधान होकर श्रवण करो। ___ यदि संक्षेप से कहें तो वर्ण, रस और गन्धादि के द्वारा लेश्याओं के स्वरूप का वर्णन करना इस लेश्यानामक अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है। ___अब उद्देशक्रम के अनुसार प्रथम नाम-द्वार का वर्णन करते हैं, अर्थात् सबसे पहले लेश्याओं के नाम का निर्देश करते हैं, यथा उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३०९] लेसज्झयणं णाम चोत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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