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________________ सागरोपम होता है। इस विषय का अर्थात् सागरोपम काल का पूर्ण स्वरूप अनुयोग-द्वार सूत्र से जान लेना चाहिए। किस-किस कर्म की यह उक्त प्रकार की स्थिति है, अब इसके सम्बन्ध में कहते हैं, यथा आवरणिज्जाण दुण्हं पि, वेयणिज्जे तहेव य । अंतराए य कम्मम्मि ठिई एसा वियाहिया ॥ २० ॥ आवरणयोर्द्वयोरपि, वेदनीये तथैव च । अन्तराये च कर्मणि, स्थितिरेषा व्याख्याता ॥ २० ॥ ܐ पदार्थान्वयः-आवरणिज्जाण - आवरण करने वाले, दुण्हं पि- दोनों ही कर्मों की, य-और, तहेव-उसी प्रकार, वेयणिज्जे - वेदनीय कर्म की, य-और, अंतराए - अन्तराय, कम्मम्मि -कर्म की, एसा - यह, ठिई- स्थिति, वियाहिया - वर्णन की गई है। मूलार्थ - उपर्युक्त स्थिति केवल ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा वेदनीय और अन्तराय, इन चार कर्मों की वर्णन की गई है। टीका-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय, इन चार कर्मों की जघन्य स्थिति तो अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की कही गई है। यद्यपि 'अपरा द्वाद्वशमुहूर्त्ता वेदनीयस्य' [अ० ८ सू० १९] इस तत्त्वार्थसूत्र के विषय में बृहद्वृत्तिकार लिखते हैं कि- द्वादशमुहूर्त्तानामेवैतामिच्छन्ति तदभिप्रायं न विद्मः' अर्थात् कुछ आचार्य वेदनीय कर्म की द्वादश मुहूर्त्तप्रमाण स्थिति मानते हैं, परन्तु उनके अभिप्राय को हम नहीं समझ सकते। तात्पर्य यह है कि उन्होंने किस आशय से और किस प्रमाण के आधार से ऐसा माना है यह हमारी समझ में नहीं आता, परन्तु हमारे विचार से तो तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता का उक्त कथन, सातावेदनीय कर्म को लेकर कहा गया प्रतीत होता है, अर्थात् वेदनीय से उनका तात्पर्य सातावेदनीय कर्म से है। कारण यह है कि सातावेदनीय कर्म की द्वादशमुहूर्त्तप्रमाण जघन्य स्थिति का उल्लेख प्रज्ञापनासूत्र में मिलता है। यथा - 'सातावेदणिज्जस्स.... जहन्नेणं बारसमुहुत्ता' [ पद० २३, ३०२, सू० २९४] अब मोहनीय कर्म की स्थिति के विषय में कहते हैं उदहीसरिसनामाणं, सत्तरिं कोडिकोडीओ । मोहणिज्जस्स उक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ २१ ॥ उदधिसदृङ्नाम्नां सप्ततिः कोटिकोटयः । मोहनीयस्योत्कृष्टा, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यका ॥ २१ ॥ पदार्थान्वयः - उदहीसरिस - उदधिसदृश, नामाणं - नाम वाले, सत्तरिं-सत्तर, कोडिकोडीओ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३०४] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं "
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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