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________________ लाभ और रूप का लाभ हो वह उच्च गोत्र है, और जिस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म अर्थात् उक्त जाति-कुल आदि अधम प्राप्त हों, उसको नीच गोत्र कहते हैं। अब अन्तराय कर्म के विषय में कहते हैं, यथा दाणे लाभे य भोगे य, उवभोगे वीरिए तहा । पंचविहमंतरायं, समासेण वियाहियं ॥ १५ ॥ दाने लाभे च भोगे च, उपभोगे वीर्ये तथा । पञ्चविधमन्तरायं, समासेन व्याख्यातम् ॥ १५ ॥ पदार्थान्वयः - दाणे - दान में, लाभ-लाभ में, य- पुनः, भोगे - भोग में, य-तथा, उवभोगे - उपभोग में, तहा - तथा, वीरिए - वीर्य में, पंचविहं पांच प्रकार का, अंतरायं - अन्तरायकर्म, समासेण-संक्षेप से, वियाहियं - कथन किया गया है। मूलार्थ - अन्तरायकर्म संक्षेप से पांच प्रकार का कथन किया गया है। यथा - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । टीका- जो कर्म आत्मा के दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य रूप शक्तियों का घात करने वाला हो उसे अन्तराय कहते हैं । अन्तरायकर्म के पांच भेद हैं, जिनका नीचे विवरण दिया जा रहा है ( १ ) दानान्तराय - दान की वस्तुएं विद्यमान हों, योग्य पात्र भी उपस्थित हो तथा दान का फल भी ज्ञात हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नहीं होता उसे दानान्तराय कहते हैं। ( २ ) लाभान्तराय-दाता में उदारता हो, दान की वस्तु भी पास हो, तथा याचना में कुशलता भी हो, फिर भी जिस कर्म के प्रभाव से लाभ न हो वह लाभान्तराय कहलाता है। तात्पर्य यह है कि योग्य सामग्री के रहते हुए भी अभीष्ट वस्तु का प्राप्त न होना लाभान्तराय - कर्म का फल है। ( ३ ) भोगान्तराय-भोग के साधन मौजूद हों तथा वैराग्य भी न हो, तो भी जिस कर्म के प्रभाव से यह जीव भोग्य पदार्थों को नहीं भोग सकता वह भोगान्तराय - कर्म है। (४) उपभोगान्तराय - उपभोग की सामग्री पास में हो और त्याग से रहित हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव उपभोग्य वस्तुओं का उपभोग न कर सके उसको उपभोगान्तराय कहते हैं। जो पदार्थ एक ही बार काम में आ सकें उनको भोग कहते हैं, जैसे कि - फल, पुष्पादि। और जो बार-बार भोगे जा सकें उनका नाम उपभोग है, यथा- स्त्री, मकान, वस्त्र और आभूषणादि । (५) वीर्यान्तराय - वीर्य का अर्थ है सामर्थ्य - शक्ति। जिस कर्म के प्रभाव से बलवान्, शक्तिशाली और युवा होता हुआ भी जीव एक साधारण सा काम भी नहीं कर सकता उसे वीर्यान्तराय कहते हैं। वीर्यान्तराय के अवान्तर भेद तीन हैं - (१) बालवीर्यान्तराय (२) पण्डित-वीर्यान्तराय और (३) बालपण्डितवीर्यान्तराय । इस प्रकार अन्तराय - कर्म का यहां पर संक्षेप में वर्णन किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ३००] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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