SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. श्रुतज्ञानावरण-शास्त्रों के वांचने तथा सुनने से जो अर्थ-ज्ञान होता है उसको श्रुतज्ञान कहते हैं, उसका आवरक-ढांपने वाला जो कर्म है उसे श्रुतज्ञानावरण कहा गया है। अथवा मतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की जिसमें पर्यालोचना हो, वह श्रुतज्ञान कहलाता है। उसके आच्छादक कर्म को श्रुतज्ञानावरण कहते हैं। इसके उत्तरभेद चौदह कहे गए हैं। २. आभिनिबोधिकज्ञानावरण-आभिनिबोधिक ज्ञान का दूसरा नाम मतिज्ञान है। इन्द्रिय और मन के द्वारा सन्मुख आए हुए पदार्थों का जो ज्ञान होता है उसे आभिनिबोधिक ज्ञान या मतिज्ञान कहते हैं। इसके अट्ठाईस भेद हैं। उनको आवृत्त करने वाला कर्म आभिनिबोधिकज्ञानावरण कहलाता है। ३. अवधिज्ञानावरण-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना अवधि अर्थात् मर्यादा को लिए हुए रूपी पदार्थों का जो ज्ञान होता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं। उसका आवरण करने वाले कर्म का नाम अवधिज्ञानावरण है। इसके छ: उत्तर भेद हैं। ४. मनःपर्यवज्ञानावरण-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना कुछ मर्यादां को लिए हुए संज्ञी जीवों के मनोगत विचारों को जान लेना मन:पर्यवज्ञान है। उस ज्ञान के आवरण करने वाले कर्मों को मन:पर्यवज्ञानावरण कहते हैं। इसके दो भेद माने गए हैं। ५. केवलज्ञानावरण-विश्व के भूत, भविष्यत् और वर्तमानकालीन समस्त पदार्थों को एक काल में जान लेना केवल ज्ञान है। ऐसे ज्ञान के आवरण करने वाले कर्मों को केवलज्ञानावरण कहा है। . - इस प्रकार पहले ज्ञानावरणीय कर्म के ये पांच उत्तर भेद कहे हैं। अब दूसरे दर्शनावरणीय कर्म के उत्तर भेदों का वर्णन करते हैं, यथा- .. निद्दा तहेव पयला, निद्दानिद्दा य पयलपयला य । तत्तो य थीणगिद्धी उ, पंचमा होइ नायव्वा ॥ ५ ॥ निद्रा तथैव प्रचला, निद्रानिद्रा च प्रचलाप्रचला च । ततश्च स्त्यानगृद्धिस्तु, पञ्चमी भवति ज्ञातव्या ॥ ५ ॥ पदार्थान्वयः-निद्दा-निद्रा, तहेव-उसी प्रकार, पयला-प्रचला, निद्दानिद्दा-निद्रानिद्रा, य-और, पयलपयला-प्रचलाप्रचला, तत्तो-तदनन्तर, य-पुनः, थीणगिद्धी-अत्यन्त घोर निद्रा, पंचमा-पांचवीं, होइ-होती है, नायव्वा-इस प्रकार जानना चाहिए। मूलार्थ-निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि, यह पांच प्रकार की निद्रा जानना चाहिए। १. यद्यपि व्याख्याप्रज्ञप्ति, स्थानांग और अनुयोगद्वार तथा नन्दी एवं प्रज्ञापना आदि आगमों में पहले मतिज्ञान का (जिसका दूसरा नाम आभिनिबोधिक ज्ञान है) उल्लेख किया गया है, तथापि श्रुतज्ञान की प्रधानता दिखाने के लिए ही यहां पर इसका प्रथम उल्लेख किया गया है इसलिए विरोध की कोई आशंका नहीं करनी चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२९०] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy