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________________ अह कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं अथ कर्मप्रकृति त्रयस्त्रिंशत्तममध्ययनम् पूर्व के बत्तीसवें अध्ययन में उन प्रमादस्थानों का वर्णन किया गया है जो कि कर्मबन्ध के स्थान कहे जाते हैं। इन्हीं मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगों के द्वारा यह जीव कर्मों को बांधता और उन्हीं से स्वयं बंध जाता है । परन्तु यह जीव जिन कर्मों को बांधता व जिनसे बांधा जाता है उनका स्वरूप क्या है, तथा उनके भेदोपभेद कितने हैं, इत्यादि बातों का जानना अत्यन्त आवश्यक है। बस इसी उद्देश्य से इस तैंतीसवें अध्ययन का आरम्भ किया जा रहा है जिसकी आदि गाथा इस प्रकार है। यथा अट्ठ कम्माइं वोच्छामि, आणुपुव्विं जहक्कमं । जेहिं बद्धो अयं जीवो, संसारे परियट्टई ॥ १॥ अष्ट कर्माणि वक्ष्यामि, आनुपूर्व्या यथाक्रमम् । यैर्बद्धोऽयं जीवः, संसारे परिवर्तते ॥ १ ॥ पदार्थान्वयः - अट्ठ-आठ, कम्माई - कर्मों को, वोच्छामि कहूंगा, आणुपुव्विं - आनुपूर्वी से, जहक्कमं-क्रमपूर्वक, जेहिं - जिन कर्मों से, बद्धो - बंधा हुआ, अयं - यह, जीवो - जीव, संसारे संसार में, परियट्टई - परिभ्रमण करता है । मूलार्थ - मैं आठ प्रकार के उन कर्मों को आनुपूर्वी और यथाक्रम से कहूंगा, जिन कर्मों से बंधा हुआ यह जीव इस संसार में परिभ्रमण करता । टीका - श्री सुधर्मास्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे शिष्य ! मैं तुम्हारे प्रति आठ प्रकार के कर्मों का प्रतिपादन करूंगा। इससे प्रतिपाद्य विषय और उसकी संख्या का निर्देश किया उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २८६ ] कम्मप्पयडी तेत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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