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________________ एवमेव भावे गतः प्रद्वेषम्, उपैति दुःखौघपरम्पराः । प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म, यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके ॥ ९८ ॥ पदार्थान्वयः-एमेव-इसी प्रकार, भावम्मि-भावविषयक, पओसं-उत्कट द्वेष को, गओ-प्राप्त हुआ, दुक्खोहपरंपराओ-दु:खों की परम्परा को, उवेइ-प्राप्त करता है, पदुट्ठचित्तो-द्वेषपूर्ण चित्त से उस, कम्म-कर्म का, चिणाइ-उपार्जन करता है, जं-जो कर्म, से-उसको, विवागे-विपाक समय में, दुहं-दुःखरूप, होइ-होता है। मूलार्थ-उसी प्रकार भावविषयक द्वेष को प्राप्त हुआ जीव भी दुःख की परम्परा को प्राप्त करता है और द्वेषपूर्ण चित्त से वह जिस कर्म का संचय करता है, वही कर्म उसको विपाक समय में दुःखरूप हो जाता है। टीका-जिस प्रकार राग से दुःखों की प्राप्ति होती है उसी प्रकार द्वेष भी दु:खों का मूल स्रोत है, इत्यादि। अब राग-द्वेष के त्याग का फल बताते हुए फिर कहते हैंभावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ ९९ ॥ भावे विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुःखौघपरम्परया । न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ॥ ९९ ॥ पदार्थान्वयः-भावे विरत्तो-भाव में विरक्त, मणुओ-मनुज, विसोगो-शोक से रहित, एएण-इस, दुक्खोहपरंपरेण-दुःखों की परंपरा से, भवमझे-संसार में, वि संतो-रहता हुआ भी, न-नहीं, लिप्पई-लिप्त होता, वा-जैसे, जलेण-जल से, पोक्खरिणीपलासं-कमलिनीपत्र लिप्त नहीं होता। मूलार्थ-जो पुरुष भाव में विरक्त और शोक से रहित है वह संसार में रहता हुआ भी उक्त प्रकार के दुःख से अलिप्त रहता है, जैसे कि जल में उत्पन्न हुआ कमलदल जल से लिप्यमान नहीं होता। ___टीका-जिस आत्मा ने मानसिक विकल्पों का परित्याग कर दिया है और शोक से भी रहित हो गई है, उस आत्मा को इन सांसारिक दु:खों का सम्पर्क नहीं होता। वह संसार में रहती हुई भी जल में रहने वाले कमलदल की भांति सांसारिक दुःखों से अलिप्त रहती है। तात्पर्य यह है कि वीतराग आत्मा को दु:खों का लेप नहीं होता, क्योंकि वह बन्ध के हेतुभूत कर्मों का अर्जन नहीं करती। यद्यपि मन में संकल्प-विकल्प तो उत्पन्न होते ही रहते हैं और उनके द्वारा पदार्थों का विचार भी होता रहता है, तथापि राग-द्वेष से रहित होने के कारण पूर्वोक्त विचारों का उस आत्मा पर कुछ भी प्रभाव नहीं होता अर्थात् वे कर्म बन्ध के कारण नहीं बनते। इस प्रकार इन उक्त १३ गाथाओं के द्वारा छठे अधिकार की पूर्णता की गई है। • उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २७५] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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