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________________ अह सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं अथ सामाचारी षड्विंशमध्ययनम् गत पच्चीसवें अध्ययन में ब्रह्मगुणों का प्रतिपादन किया गया है। ये गुण सम्यक् रूप से संयमशील साधु में ही संगठित हो सकते हैं और संयमशील साधु वही कहला सकता है, जो कि सम्यक्तया अपनी सामाचारी का पालन करे। अत: इस छब्बीसवें अध्ययन में साधु की सामाचारी का वर्णन किया जाता है और सामाचारी का वर्णन होने से ही इस अध्ययन का नाम सामाचारी अध्ययन रखा गया है। इसकी आद्य गाथा इस प्रकार है - . सामायारिं पवक्खामि, सव्वदक्खविमोक्खणिं। जं चरित्ताण निग्गंथा, तिण्णा संसार-सागरं ॥१॥ सामाचारी प्रवक्ष्यामि, सर्वदुःखविमोक्षणीम्। ..यां चरित्वा निर्ग्रन्थाः, तीर्णाः संसार-सागरम् ॥१॥ पदार्थान्वयः-सामायारिं-सामाचारी को, पवक्खामि-कहूंगा, सव्वदुक्ख-सर्वदुःखों को, विमोक्खणिं-दूर करने वाली, जं-जिसको, चरित्ताण-आचरण करके, निग्गंथा-निर्ग्रन्थ, संसार-सागरं-संसार-सागर को, तिण्णा -तर गए। मूलार्थ-मैं सर्व दुःखों से मुक्त करने वाली सामाचारी को कहूंगा, जिसका आचरण करने से निर्ग्रन्थ संसार-सागर से तर गए। टीका-प्रस्तुत गाथा में सामाचारी के वर्णन की प्रतिज्ञा और उसकी फलश्रुति का उल्लेख किया गया है। श्री सुधर्मास्वामी अपने प्रिय शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि मैं सामाचारी का वर्णन करता हूं जो सर्वप्रकार के शारीरिक और मानसिक दु:खों का विनाश करने वाली है तथा जिसके अनुष्ठान से उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१९] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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