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________________ से, सुहं - सुख, होज्ज - हो सकता है, कयाइ - कदाचित् भी, किंचि - किंचिन्मात्र भी, तत्थोवभोगे वि-रसों के उपभोगकाल में भी, किलेसदुक्खं - क्लेश और दुःख को ही, निव्वत्तई - सम्पादन करता है। मूलार्थ - रसों में आसक्त होने वाले पुरुष को कभी और किंचिन्मात्र भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता, अपितु रसों के उपभोग के समय में भी उसको क्लेश और दुःख का ही अनुभव करना पड़ता है। टीका - भावार्थ स्पष्ट है, अतः व्याख्या की आवश्यकता नहीं है। अब द्वेष के सम्बन्ध में कहते हैं, यथाएमेव रसम्मि गओ पओसं, पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ७२ ॥ एवमेव रसे गतः प्रद्वेषम्, उपैति दुःखौघपरम्पराः । प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म, यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके ॥ ७२ ॥ पदार्थान्वयः - एमेव- इसी प्रकार, रसम्मि- रसों में, पओसं-उत्कट द्वेष को गओ- - प्राप्त हुआ, दुक्खोहपरंपराओ - दुःखसमूह की परम्परा को, उवेइ- इ-प्राप्त होता है, पदुट्ठचित्तो- दुष्टचित्त होकर अर्थात् वह उस, कम्मं - कर्म को, चिणाइ - एकत्रित करता है, जं-जिस कर्म से, से- उसको, पुणो-फिर, विवागे - विपाककाल में, दुहं - दुःख, होइ - होता है । मूलार्थ - इसी प्रकार रस के विषय में उत्कट द्वेष को प्राप्त होने वाला जीव भी दुःख- समुदाय की परम्परा का अनुभव करता है तथा दूषित चित्त से वह जिस कर्म का उपार्जन करता है वही कर्म विपाककाल में उसके लिए दुःखरूप हो जाता है। टीका - इस गाथा की टीका के लिए जो कुछ वक्तव्य था उसका उल्लेख पूर्वोक्त गाथाओं में हो चुका है। . अब उक्त विषय में राग-द्वेष के त्याग का फल बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं रसे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ ७३ ॥ रसे विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुःखौघपरम्परया । न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ॥ ७३ ॥ पदार्थान्वयः - रसे विरत्तो - रसों में विरक्त, मणुओ-मनुष्य, विसोगो-शोक से रहित, एएण- इस, दुक्खोहपरंपरेण-दु:खसमूह की परम्परा से, भवमज्झे- संसार में, वि संतो - होता हुआ भी, न लिप्पई - लिप्त नहीं होता, वा-जैसे, जलेण-जल से, पोक्खरिणीपलासं कमलिनी का पत्र लिप्त उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२६१] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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