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________________ में प्रवृत्त और गन्ध में अतृप्त रहने वाला जीव भी सहायशून्य होकर दुःखी होता है। टीका-प्रस्तुत गाथा में मिथ्या भाषण और अदत्तापहरण का दुःखरूप जो कटु परिणाम है, उसका दिग्दर्शन कराया गया है । इस गाथा के विशेष अभिप्राय को पूर्व गाथा में कह दिया गया है, इसलिए यहां पर नहीं लिखा गया। अब उक्त विषय का निगमन करते हुए फिर कहते हैंगंधाणुरत्तस्स नरंस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कण दुक्खं ॥ ५८ ॥ गन्धानुरक्तस्य नरस्यैवं, कुतः सुखं भवेत्कदापि किञ्चित् । तत्रोपभोगेऽपि क्लेशदुःखं, निर्वर्तयति यस्य कृते दुःखम् ॥ ५८ ॥ पदार्थान्वयः -एवं- - इस प्रकार, गंधाणुरत्तस्स - गन्ध के विषय में अनुरक्त, नरस्स-पुरुष को, कत्तो - कहां से, सुहं - सुख, होज्ज-होवे, कयाइ - कदाचित् किंचि - यत्किंचित् भी, तत्थोवभोगे वि-वहां पर उपभोग में भी, किलेस - क्लेश - और, दुक्खं दुःख को, निव्वत्तई- - उत्पन्न करता है, जस्स - जिसके, करण - लिए, दुक्खं-दुःख को। मूलार्थ - गन्धविषयक अनुराग रखने वाले पुरुष को कदाचित् लेशमात्र भी सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती, तथा जिसके लिए वह कष्ट उठाता है उसके उपभोगकाल में भी वह क्लेश और दुःख का ही उपार्जन करता है। टीका - इस गाथा की व्याख्या भी पूर्व गाथाओं के समान समझ लेनी चाहिए। अब द्वेष के विषय में कहते हैं, यथा एमेव गंधम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पट्ठचित्तो यचिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ५९ ॥ एवमेव गन्धे गतः प्रद्वेषम्, उपैति दुःखौघपरम्पराः । अदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म, यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके ॥ ५९ ॥ पदार्थान्वयः - एमेव - इसी प्रकार, गंधम्मि- गन्ध के विषय में, पओसं- प्रद्वेष को गओ - प्राप्त हुआ, दुक्खोह-दु:खसमूह की, परंपराओ - परम्परा को, उवे - - पाता है, य-फिर, पदुट्ठचित्तो- दुष्ट चित्त जिसका - दूषित चित्त वाला, कम्मं कर्म का, चिणाइ - उपार्जन करता है, जं- जो कर्म, से- वही कर्म उसके लिए, विवागे - विपाक - समय में, दुहं - दुःखरूप होता है। मूलार्थ-इसी प्रकार गन्ध-विषयक विशिष्ट द्वेष को प्राप्त होने वाला पुरुष भी दुःख - समुदाय की परम्परा को प्राप्त होता है, फिर वह दूषिते मन से जिस कर्म का उपार्जन करता है वही कर्म उसके लिए फल देने के समय दुःख-रूप हो जाता है । उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२५४] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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