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________________ गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥ ५० ॥ गन्धेषु यो गृद्धिमुपैति तीव्राम्, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । रागातुर औषधिगन्धगृद्धः, सर्पो बिलादिव निष्क्रामन् ॥ ५० ॥ पदार्थान्वयः-जो-जो जीव, गंधेसु-गन्ध के विषय में, तिव्वं-अति तीव्र, गिद्धिं-मूर्छा को, उवेइ-प्राप्त होता है, से-वह, अकालियं-अकाल में, विणासं-विनाश को, पावइ-प्राप्त हो जाता है, रागाउरे-राग से आतुर हुआ, ओसहि-औषधि की, गंध-गंध में, गिद्धे-मूछित, विव-जैसे, सप्पे-सर्प, बिलाओ-बिल से, निक्खमंते-निकलता हुआ विनाश को पाता है। मूलार्थ-जो पुरुष गन्ध में अत्यन्त मूच्छित हो जाता है, वह अकाल में ही ऐसे विनाश को प्राप्त हो जाता है, जैसे राग से आतुर हुआ सर्प औषधि के गन्ध में मूछित होकर बिल से बाहर निकलता हुआ विनाश को प्राप्त होता है। टीका-गन्ध के विषय में बढ़े हुए राग का परिणाम क्या होता है, इस बात को सर्प के दृष्टान्त से बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि जो जीव गन्ध में अत्यन्त आसक्ति रखता है वह शीघ्र ही विनाश को प्राप्त हो जाता है, जैसे कि नागदमनी आदि औषधियों के गन्ध में अत्यन्त मूछित होने वाला सर्प उसकी गन्ध पर मुग्ध होकर बिल से बाहर निकलने पर मृत्यु को प्राप्त करता है। इससे सिद्ध हुआ कि बढ़ा हुआ राग ही इस जीव के विनाश का एक मात्र कारण है। अब राग की भांति द्वेष का भी फल बताते हैं, यथा जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुदंतदोसेण सएण जंतू, न किंचि गंधं अवरज्झई से ॥ ५१ ॥ यश्चापि द्वेषं समुपैति तीव्र, तस्मिन् क्षणे स तूपैति दुःखम् । दुर्दान्तदोषेण स्वकेन जन्तुः, न किञ्चिद्गन्धोऽपराध्यति तस्य ॥५१॥ पदार्थान्वयः-जे यावि-जो कोई-अप्रिय गन्ध में, तिव्वं-तीव्र भावों से, दोसं-द्वेष को, समुवेइ-प्राप्त होता है, से-वह, तंसि क्खणे-उसी क्षण में, दुक्खं-दु:ख को, उवेइ-प्राप्त हो जाता है, उ-वितर्क अर्थ में है, सएण-स्वकृत, दुइंतदोसेण-दुर्दान्त दोष से, जंतू-जीव, से-उसका, किंचि-यत्किचित् भी, गंधं-गन्ध, न अवरज्झई-अपराध नहीं करता। मूलार्थ-कोई जीव जब भी अप्रिय गन्ध के विषय में तीव्र द्वेष करता है, वह उसी क्षण में दुःख को प्राप्त हो जाता है, परन्तु यह जीव स्वकृत दुर्दान्त दोषों से ही दुःखों को प्राप्त होता है, इसमें गन्ध का कोई भी अपराध नहीं, अर्थात् इस जीव को अप्रिय गन्ध दुःख देने वाला नहीं है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २५०] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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