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________________ रूपासक्त जीव किसी प्रकार से भी सुख का सम्पादन नहीं कर सकता। इसलिए सुख की इच्छा रखने वाली मुमुक्षु आत्मा को इस अशुभ आसक्ति का परित्याग ही कर देना चाहिए । रागविषयक वर्णन करने के अनन्तर अब द्वेष के विषय में कहते हैं, यथाएमेव रूवम्मि गओ पओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पट्ठचित्तो य चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ३३ ॥ एवमेव रूपे गतः प्रद्वेषम्, उपैति दुःखौघपरम्पराः । प्रदुष्टचित्तश्च चिनोति कर्म, यत्तस्य पुनर्भवति दुःखं विपाके ॥ ३३ ॥ पदार्थान्वयः - एमेव- इसी प्रकार, रूवम्मि-रूप में, पओसं- प्रद्वेष को गओ - प्राप्त हुआ, उवेइ-पाता है, दुक्खोहपरंपराओ-दुःखसमूह की परम्परा को, य-फिर, पदुट्ठचित्तो- प्रदुष्टचित्त हुआ, कम्पं-कर्म को, चिणाइ - उपार्जन करता है, पुणो-फिर वह कर्म, जं-जो, से उसको, विवागे - विपाककाल में, दुहं - दुःखरूप, होइ - हो जाता है। मूलार्थ - इसी प्रकार रूप के विषय में प्रद्वेष को प्राप्त हुआ जीव दुःख के समूह की परम्परा को प्राप्त हो जाता है तथा दुष्ट चित्त से कर्म का उपार्जन करता है । फिर वही कर्म उसके लिए विपाककाल में दुःखरूप हो जाता है। टीका-जिस प्रकार रूप के विषय में अत्यन्त मूर्छित हुआ पुरुष दुःख का भागी बनता है, ठीक उसी प्रकार जो जीव कुत्सित रूप के देखने से प्रद्वेष को प्राप्त होता है, वह भी दुःख - परम्परा को प्राप्त होता है। वह दुष्ट चित्त से जिन कर्मों को एकत्रित करता है, विपाककाल में वे ही कर्म उसके लिए दुःखरूप हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि रूपविषयक प्रद्वेष होने से अशुभ कर्म की प्रकृतियों का बन्ध होता है और जब वे उदय में आती हैं तब उनका फल अशुभ अर्थात् दुःखरूप होता है। इन्हीं के कारण यह जीव इस लोक तथा परलोक में अनेकविध दुःखों का अनुभव करता है। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को राग की भांति द्वेष का भी परित्याग कर देना चाहिए । राग-द्वेष के परित्याग से जिस गुण की प्राप्ति होती है, अब शास्त्रकार उसका वर्णन करते हैं, यथा रूवे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवन्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ ३४ ॥ रूपे विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुखौघपरम्परया । न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः-रूवे-रूप में, विरत्तो - विरक्त, मणुओ-मनुष्य, विसोगो - शोकरहित होता है, एएण- इस, दुक्खोहपरंपरेण - दुःखसमूह की परम्परा से, भवमज्झे वि-संसार के मध्य में भी, संतो-रहता हुआ, न लिप्पई-लिप्त नहीं होता, जलेण वा - जल में जैसे, पोक्खरिणीपलासं पद्मिनी उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २४० ] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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